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पारणतरण
श्रावकार
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विशेषार्थ-यहां कहते हैं कि उपवास चाहे जितने करो। हरएक उपवासमें शुद्धता होनी चाहिये। मनमें आर्तध्यान, रौद्रध्यान न होना चाहिये। तत्वोंकी भावना की जानी चाहिये। आत्माका अनुभव किया जाना चाहिये । ऐसा ही उपवास यथार्थ है। मोक्षलक्ष्मीकी प्राप्तिका एक मार्ग है इसमें कोई शंका नहीं है। जहां शांतभाव, ज्ञानभाव, आनन्दभाव समय समय बढता रहे वही उपवास है। एक भी उपवास विधिपूर्वक व भावपूर्वक किया जाय तो अधिक फलदाई है। परन्तु जी अनेक उपवास किये जावे व आत्म शांति व आत्म विचार न हो तो वे मोक्षमार्ग नहीं है। प्रयोजन यह है कि चौथी प्रतिमाघारीको एक मासमें चार उपवास तो शुद्ध भावसे अवश्य ही करना योग्य है। जो सामायिक प्रति दिन तीन काल वह करता था, उपवासके दिन उसे बहुत अधिक कालतक साम्यभाव रखनेका अवसर मिलता है। उपवास धर्मध्यानका एक अच्छा अवसर प्राप्त कर देता
है। उपवास के दिन परमात्म प्रकाश, समपसार, समाधिशतक आदि अध्यात्म ग्रंथोंका विशेष मनन १ करना चाहिये। ध्यानका अभ्यास जितना अधिक होसके किया जाना चाहिये । यह उपवास आत्मोन्नतिका विशेष उपकारी है।
श्लोक-सचित्तं चिंतनं कृत्वा, चेतयंति सदा बुधैः।
अचेतं असत्य त्यक्तंते, सचित्त प्रतिमा उच्यते ॥ १५ ॥ मन्वयार्थ-(सचित्तं चिंतनं कृत्वा) सचित्त अर्थात् शुद्धात्माका चितवन करके (चेतयंति सदा बुधैः) ॐ सदा बुद्धिवान अनुभव करते हैं (अचेतं असत्य त्यक्तंते ) अज्ञान व मिथ्या वस्तुको त्याग देते हैं (सचित्त प्रतिमा उच्यते ) उसे सचित्त प्रतिमा कहते हैं।
विशेषार्थ-पांचमी सचित्त प्रतिमा या सचित्त त्याग प्रतिमा है। इस श्लोकमें निश्चयनयकी ॐ मुख्यतासे कथन है कि चेतना सहित जो शुखात्मा उसके गुणोंका चितवन करके उसका अनुभव
बुद्धिमानजन करते हैं। किसी मूढ भक्तिका व असत्य तत्वका चितवन नहीं करते हैं और न अज्ञान स्वरूप पुद्गलादिका चिंतवन करते हैं न नाशवंत असत्य जगतकी क्षणभंगुर पर्यायोंका चितवन करते हैं। आर्त व रौद्रध्यानके सब विषय छोडकर धर्मध्यानमें भी एक आत्माको ही विषय करके जो
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