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वारणतरण
॥४०४ ॥
अन्वयार्थ — ( सम्यक्त बिना ) सम्यग्दर्शन के विना ( येन अनादि कालयं व्रतं तपं ) जिसने अनादिकालसे व्रत पाले हों, तप किया हो (मास पाखं च उपवास) एक मास या पंद्रह दिनका उपवास किया हो ( संसारे दुःखदारुणं ) वह सब संसार में भयानक दुःखका ही कारण है ।
विशेषार्थ - सम्यग्दर्शन मोक्षके मार्गका बीज है । सम्यग्दर्शनके विना जितना भी ज्ञान है वह कुज्ञान है, जितना भी चारित्र है, कुचारित्र है इसका कारण यही है कि मिथ्यात्व व अनंतानुबंधी कषायकी वासना नहीं छूटती है। इसलिये यदि मुनि या श्रावकका चारित्र भी पालता है, मास मास भरके या पंद्रह पंद्रह दिन के उपवास भी करता है तौ भी कोई न कोई कषायक अभिप्राय भीतर जमा रहता है । पातो मानवश, या मायावश, या लोभवश, चारित्र पाला जाता है। उत्तम गतियोंमें सुख मिले, दुर्गतिमें दुःख न मिले ऐसी भावना मिध्यादृष्टीके भीतर बनी रहती है । इसलिये कठोर व्रत व तपश्चरण भी सच्ची वीतरागताको नहीं बढा सक्ता है क्योंकि बीज विना वृक्ष कैसे बढे । शुद्धात्माकी श्रारूप सम्यग्दर्शन बीज है । इसके होते हुए व्रत चारित्र तप आदि वीतरागताके वृक्षको बढाते हैं । यदि संसारसे वैराग्यकी श्रद्धाको जमानेवाला सम्पदर्शन नहीं है तो व्रत तपादि कुछ मंद कषायसे पुण्यका बंध कर देता है जिससे देवगतिमें या साताकारी मानव गतिमें जन्म लेता है वहां विषयभोगों में रंजायमान होकर नरक या पशु गति में चला जाता है या निगोद में चला जाता है जहांसे निकलना दीर्घकालमें भी दुर्लभ है । संसारके भयानक दुःखों को सहना पडता है । इसलिये यह उपदेश है कि श्रावककी श्रेणियोंको सम्पत महित पालन करो। सम्यक्तके विना व्रत उपवास भूसीको पेलना है । सम्यक्त सहित चारित्र ही धान्य में से चावल अलग करना है ।
श्लोक – उपवासं एक शुद्धं च
मन शुद्धं तत्व सार्द्धयं ।
मुक्ति श्रियं पथं येन, प्राप्तं नात्र संशयः ॥ ४१४ ॥
अन्वयार्थ - (येन ) जिसने (एक उपवासं शुद्धं च ) एक भी उपवास शुद्धतासे किया हो ( मन शुद्धं ) मनमें मैल न हो (तत्व सार्द्धयं ) आत्मतत्वकी भावना सहित हो (मुक्ति श्रियं पथं प्राप्तं ) उसने मोक्षलक्ष्मी मार्गको पालिया ( नात्र संशयः ) इसमें कोई संशय नहीं है ।
1990
श्रावकाचार
॥ ४०४ ॥