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________________ वारणतरण ॥४०३० RECEREGre है उसीके प्रोषधोपवास कहा जाता है। जितना अधिक आरंभ परिग्रहका निमित्त होता है उतना श्रावकाचार अधिक मन उनमें फंसा रहता है। तब ध्यानके करते समय भी वैसे ही विचार मनमें आजाते हैं। इसलिये मनकी निश्चलताके लिये यही उचित है कि आरंभ व परिग्रहका त्याग किया जावे। सम्यग्दृष्टी ज्ञानी तो निरंतर साधु रूपमें रहनेकी आकांक्षा रखता है परंतु कषायके शमन न होनेसे गृहका त्याग नहीं कर सकता है तब वह प्रोषधोपवास धार करके नियमित कालके लिये साधुके समान आचरण करता है, परमानन्दके लाभमें आसक्त रहता है, मोक्षमार्गमें साक्षात् चलकर जन्मके समयको सफल करता है। ___श्लोक-उपवास फलं प्रोक्तं, मुक्तिमार्गं च निश्चयं । संसारदुःख नासते, उपवासं शुद्धं फलं ॥ ४१२॥ अन्वयार्थ–(उपवास फलं प्रोक्तं) उपवास करनेका फल यह कहा गया है कि (निश्चयं च मुक्तिमार्ग) निश्चय मोक्षमार्गकी प्राप्ति हो । ( संसार दुःखनासन्ते) संसारके दुःखोंका नाश हो (उपवास शुद्ध फर्क) उ व उपवाससे शुद्धभावकी प्राप्ति हो यह फल है।। विशेषार्थ-यद्यपि उपवास करना, आहार न करना, भारम्भ त्यागना, एकांतमें रहना यह सब व्यवहार चारित्र है परन्तु यह तब सफल है जब कि निश्चय रत्नत्रयरूप शुद्धात्माके श्रद्धान ज्ञान चारित्ररूप निश्चय मोक्षमार्गका लाभ हो। शुद्ध भावोंकी प्राप्तिसे काँकी विशेष निर्जरा होती है जिससे संसारके दुःखोंका नाश होता है। व आत्माके शुद्धभावकी वृद्धि होती जाती है। उपवास करना बडा भारी तप है, परन्तु जिस उपवासमें आर्तध्यान होजावे, आदर न रहे, यह उपवास सफल नहीं होगा। जहां धर्मध्यानका दृढ उत्साह रहे, परिणाम पैराग्यमें आरूढ होते रहे, अध्या. ॐ त्मीक-तत्वका ध्यान हो, असली मोक्षमार्ग मिले, वही उपवास सफल है। श्रावकोंको घडे ही प्रसन्न मनसे परिणामोंकी उज्वलताके हेतुसे ही प्रोषधोपवास करके आत्माका कर्म मैल छुडाना चाहिये। श्लोक-सम्यक्त विना व्रतं येन, तपं अनादि कालयं । उपवासं मास पाषं च, संसारे दुःखदारुणं ॥ ४१३ ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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