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वारणवरण
॥४०६॥
ॐ अनुभव करते हैं निरन्तर स्वरूपमें सावधान हैपेनिश्चयसे सचित्त प्रतिमाधारी भाषक हैं। आत्मध्यानके अभ्यासकी उन्नति ही वास्तव में प्रतिमाकी उन्नति है।
श्लोक-सचिनं हरितं येन, त्यक्ते न विरोधनं ।
सचित्त सन्मूर्छनं च, त्यक्ते सदा बुधैः ॥ ४१६ ॥ सचित्त हरितं त्यक्तं च, अचित्त साद्धं च त्यतयं ।
सचेतं चेतना भावं, सचित्त प्रतिमा सदा ।। ४१७ ॥ अन्वयार्थ-(येन) जो (सचित्तं हरितं त्यक्तंते न विरोधन) सचित्त वनस्पतिका त्याग करे उनको (वृथा) तोडे व नाश न करे। (बुधैः सदा सचित्त सन्मूर्छनं च त्यक्ते) बुद्धिमान जन सदा हरएक सचित्त एकेन्द्रिय सन्मूर्छनका त्याग करे (सचित्तं हरितं त्यक्तं च) सचित्त वनस्पतिका त्याग करके (अचित्त साद्धं च त्यक्तय) अचित्तके साथ मिली हुई सचित्तका भी त्याग करे। (चेतनाभावं सचेतं) चैतन्य भावका अनुभव करे ( सदा
सचित्त प्रतिमा ) उसके सदा सचित्त प्रतिमा होती है। ॐ विशेषार्थ-इस पांचमी प्रतिमामें जीव सहित वस्तुको खानेका त्याग है। इसलिये एकद्रिय जल, * पृथ्वी, वनस्पति आदिका सचित्त अवस्थामें यह आहार नहीं करेगा, उनको अचित्त अवस्थामें लेगा,
कच्चा पानी न पीकर प्रासुक या गर्म पानी पीवेगा। तरकारी फल आदि पचाकर व सूखे व प्रासुक दशामें खाएगा, सचित्त अवस्थामें न खाएगा। अभी इसके आरम्भका त्याग नहीं है इसलिये इनको सचित्तके व्यवहारका व विराधनाका सर्वथा त्याग नहीं है। यह पानीको प्रासुक व गर्म कर सकता है व वनस्पतिको सचित्तसे अचित्त कर सका है। यह सचित्त जल व वनस्पतिको कभी खाएगा नहीं, तौभी वृथा जल व वनस्पतिका विराधन नहीं करेगा। दयावान होकर जितना कम आरम्भ सचि. तका होसके उतना करेगा। रत्नकरण्डमें कहा है
मूलफलशाकशाखाकरीरकन्दप्रसूनवीमानि । नामानि योऽत्ति सोऽयं सचित्तविरतो दयामूर्तिः ॥१४१॥ भावार्थ-जो कच्चे या अप्राशुक मूल, फल, शाक, शाखा,गांठव केर, कंद, फल व वीज नहीं खाता है सोदयावान सचित्त प्रतिमाधारी है।प्राशुक करनेकीरीति यह है याप्राशुरु किसे कहते हैं तो लिखा है-
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