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________________ सारणतरण कृष्णा, कावेरी आदि नदियोंको तीर्थ कहकर इनमें स्नान करन। धर्म मानते हैं। ये तो वास्तव में तीर्थ श्रावकाचार ॥३६॥ नहीं हैं, क्योंकि जल स्नान हिंसाका कारण होनेसे धर्म नहीं होसका। शरीर स्वच्छ करके यदि ध्यान स्वाध्यार करे तो यह जल-स्नान व्यवहार बाहरी शौचका मात्र कारण होसक्ता है। वास्तवमें पवित्रपना आत्माके भावोंका शुद्ध होना तथा आस्माके कर्ममैलका धुलना है, उसके लिये आत्मामें ४ लवलीन होना ही सच्चा तीर्थस्नान है। जो निरन्तर आत्मारूपी गंगामें स्नान करते हैं उनके कर्मके ढेरके ढेर गल जाते हैं। अतएव गृहस्थ श्रावकको उचित है कि व्यवहार संयमके आश्रयसे आत्मीक * ध्यानका अभ्यास करे । यही शुद्ध संयम परम हितकारी व यही सच्चा मोक्ष मार्ग है, यही परम र उपादेय है। यही निरंतर भावने योग्य है। तपका अभ्यास। श्लोक-तपश्च अप्प सदभावं, शुद्ध तत्त्व सुचिंतनं । ___ शुद्ध ज्ञानमयं शुद्धं, तथा हि निर्मलं तपः ॥ ३७३ ॥ अन्वयार्थ-(तपश्च ) तप भी (अप्प सदभावं) आत्माके यथार्थ स्वभावमें ठहरना है (शुद्ध तत्व मुचिंतनं ) शुद्ध आत्मीक तत्वका भलेप्रकार चिंतवन करना है (शुद्ध ज्ञानमयं शुद्धं ) शुद्ध ज्ञान चेतनामय होना ही शुरु तप है ( तथा हि निर्मलं तपः) इसीको ही मल रहित निश्चय तप कहते हैं। विशेषार्थ-गृहस्थीके छः कामें जैसे नित्य देव पूजा, गुरु भक्ति, शास्त्र स्थाध्याय, संयमका नियम लेना जरूरी है वैसे तप करना जरूरी है। मुख्य तप आत्मध्यान है। इसलिये गृहस्थको प्रात:काल और सायंकाल एकांत स्थानमें तिष्ठकर सामायिकका अभ्यास करना चाहिये। सूर्योदय व सूर्यास्तके करीब ध्यान करनेका अभ्यास करे। एकांत स्थानमें मन, वचन, कायको शुद्ध करके आसन बिछाकर बैठे। सामायिककी विधि यह है कि पहले पूर्व या उत्तरकी तरफ मुख करके कायोत्सर्ग हाथ लटकाके खडा होकर नौ दफे णमोकार मंत्र पढे फिर भूमिमें दंडवत् करके सामायिक स्वीकार करे। यह प्रतिज्ञा करे कि जबतक सामायिक करता हूँ जो कुछ मेरे पास है व जितना क्षेत्र मैंने रोका -
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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