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मो.मा.|| तो होय जाय । वहुरि जो शुभोपयोगहीकी भला जानि ताका साधन किया करे, तो शखोप्रकाश || पयोग कैसे होय । तातै मिथ्यादृष्टीका शभोपयोग तो शुद्धोपयोगको कारण है नाहीं । सम्य
| दृष्टीकै शभोपयोग भए निकट शुद्धोपयोग प्राप्ति होय, ऐसा मुख्यपनाकरि कहीं शुभोपयोग| को शुद्धोपयोगका कारण भी कहिए है । ऐसा जानना । बहुरि यह जीव आपों निश्चय व्य|वहाररूप मोक्षमार्गका साधक मानै है । तहां पूर्वोक्त प्रकार आत्माकों शुद्ध मान्या, | | सो तो सम्यग्दर्शन भया । तैसें ही जान्या सो सम्यग्ज्ञान भया । तैसें ही विचारविर्षे | प्रवा सो सम्यक्चारित्र भया । ऐसे तो आपकै निश्चय रत्नत्रय भया माने । सो में प्रत्यक्ष | अशुद्ध सो शुद्ध कैसैं मानौं जानौं विचारों हों, इत्यादि विवेकरहित भ्रमतें संतुष्ट हो है ।। बहुरि अरहंतादि विना अन्य देवादिककों नःमान. है, वा जैनशास्त्र अनुसार जीवादिकके। भेद सीख लिए हैं, तिनहीकों माने है औरकों न माने, सो तो सम्यग्दर्शन भया । बहुरि । जैनशास्त्रनिका अभ्यासविषै बहुत प्रवत्ते है, सो सम्यग्ज्ञान भया । बहुरि व्रतादिरूप क्रियानिविषै प्रवत्र्त है; सो सम्यक्चारित्र भया । ऐसें आपके व्यवहार रत्नत्रय भया. माने। सो || व्यवहार तो उपचारका नाम है । सो उपचार भी तो तब बनै, जब सत्यभूत निश्चय रत्नत्रयका | | कारणादिक होय । जैसें निश्चय रत्नत्रय सधै, तेसैं इनकौं साधे, तो व्यवहारपनो भी संभवै।। सो याकै तौ सत्यभूत रत्नत्रयकी पहचानि ही भई नाहीं । यह ऐसे कैसे साधि सके ।
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