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मो.मा. छोड़ि शुभहीविषे प्रवर्त्तना । जाते शुभोपयोगते अशुभोपयोगविणे अशुद्धताकी अधिकता है। प्रकाश
बहुरि शुद्धोपयोग होय, तब तो परद्रव्यका साक्षीभूत ही रहे है । तहां तो किछू परद्रव्यका प्रयोजन ही नाहीं । बहुरि शुभोपयोग होय, तहां बाह्य व्रतादिककी प्रवृत्ति होय, अर अशुभोपयोग होय, तहां बाह्य अत्रतादिककी प्रवृत्ति होय । जाते अशुभोपयोगकै अर परद्रव्यकी प्रवृत्तिकै निमित नैमित्तिक संबंध पाईए है । बहुरि. पहलै अशुभोपयोग छुटि शुभोपयोग होय, पीछे शुभोपयोग छूटि शुद्धोपयोग होय । ऐसी क्रमपरिपाटी है । बहुरि केई ऐसैं मानें । कि शुभोपयोग है, सो शुद्धोपयोगकौं कारण है । सो जैसें अशुभोपयोग छुटि शुभोपयोग
हो है, तैसें शुभोपयोग टि शुद्धोपयोग हो है । ऐसे ही कार्य कारणपना होय, तौ शुभोपयो। गका कारण अशुभोपयोग ठहरै । अथवा द्रव्यलिंगीकै शभोपयोग तो उत्कृष्ट हो है, शुद्धो
पयोग होता ही नाहीं । तातै परमार्थतै इनकै कारणकार्यपना है नाहीं । जैसे रोगीके बहुत रोग था, पीछे स्तोक रोग भया, तो वह स्तोक रोग तो निरोग होनेका कारण है नाहीं । इतना है स्तोक रोग रहें निरोग होनेका उपाय करै, तो होय जाय । बहुरि जो स्तोक रोगहीको भला जानि ताका राखनेका यत्न करे, तो निरोग केसे होय । तैसें कषापीके तीव्रकषायरूप अशुभोपयोग था, पीछे मंदकषायरूप शुभोपयोग भया, तो वह शुभोपयोग तो निःकषाय शद्धोपयोग होनेको कारण है नाहीं । इतना है-शुभोपयोग भए शुद्धोपयोगका यत्न करे,
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