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श्रावकराय
मरणतरणY
वे इतना अधिक शास्त्र जानते हों कि ग्यारह अंग और नौ पूर्वके पाठी हों, उनके पढाए हुए अन्य
Y साधु यथार्थ मार्गको पालेवें परन्तु वे मिथ्यात्व भावसे वासित होते हुए वीतरागता मय कभी न ॥१५७॥ होते हुए, अंतरंग विषयानुरागकी भावना हीमें रहते हैं। चाहे वे मोक्षके लिये यल कर रहे हों
ऐसा मान रहे हों तथापि वे मोक्षको नहीं पहचानते हैं। मोक्षमें भी इंद्रियजन्य सुखकी अनंतता प्राप्त होगी ऐसी आशा भीतर बनी रहती है। क्योंकि उनको आत्मानुभव नहीं हो पाया है। उनको
अतीन्द्रिय आनन्दका स्वाद नहीं मिला है। इसीसे वे विषय स्वाइके लोलुपी ही भीतर वासनामें ४ होरहे हैं, मिथ्यात्वको ही पुष्ट कर रहे हैं। नौ ग्रैयिक कदाचि चले जाते हैं तो भी संसार हीमें रुलते हैं।
श्लोक-मानं रागसम्बन्धं, तप दारुणं बहुकृतं ।
__ शुद्धतत्वं न पश्यंति, ममता दुर्गतिभाजनं ॥१५॥ ___ अन्वयार्थ-(रागसम्बन्धं मानं ) ऐसे मिथ्या तप करनेवालोंके ऐसे तपमें मोरके कारण यह अहं. कार होजाता है कि (तप दारुणं बहुरुतं ) हमने बहुत कठिन २ तप बहुत काल तक किया है। वे (शुद्धतत्व ) शुद्ध आत्मीक तत्वको ( न पश्यति ) नहीं अनुभव करते हैं। (ममता ) उनके भीतर जो मोह है वही (दुर्गतिभाजन ) उनकी कुगतिका कारण है।
विशेषार्थ-लोभ कषायकी वासनाको रखते हुए जो दीर्घकाल तक बहुत कठिन तप करते हैं उनके भीतर तपका मद सहजमें होजाता है कि हम बडे तपस्वी हैं। उनका बहुत परीषह सहन कषायको मेटने के स्थानमें मान कषायकी तीव्रता कर देता है। खेद है वे शुद्ध आत्मीक तत्वका अनुभव न पाकर उस अमृतके स्वादसे शून्य है। इसीसे वीतरागता सहित निर्विकल्प समाधिको ये नहीं पाते हैं। यद्यपि ये विकल्पोंको मेटकर ध्यान लगाते हैं, परन्तु भीतर रागकी आग जला करती है, इसीलिये यह तप मिथ्या तप कहा जाता है। उनके भीतर जो संसारका ममत्व है वह उनके लिये मोक्षके विपरीत बहुतसी गतियों में भ्रमण कराता है। यद्यपि शुक्ल, पद्म या पीतलेश्याके कारण वे उस शरीरसे स्वर्गादि चले जाते हैं, वहांपर जाकर वे विषय-सुखमें अति आसक्त होजाते हैं, सम्यक्त न पाते हुए यदि जिनेन्द्रकी भक्ति करते हैं व जिन अकृत्रिम चैत्यालयोंका दर्शन करते
॥१५॥