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________________ भारणतरण १५८॥ हैं तथापि विषयकी लोलुपताको न छोडते हुए, अन्य अपनेसे अधिक विभूतिवाले देवोंकी सम्प-४ दाको देखकर ईर्षावान रहते हुए, देवांगनाके वियोगसे शोक भाव करते हुए, आयु पूर्ण होते हुए भारी आर्तध्यान करते हुए, यदि सौधर्म ईशान स्वर्गमें हुए तो मरकर एकेंद्रिय वृक्ष आदिमें आकर जन्म पालेते हैं, दीर्घ संसारके भागी होते हैं। इस तरह मिथ्या तप व उसका मद जीवका भारी अहित करता है। इसी तरह और भी मद प्राणीका अहित कारक है। आठों मदोंको विष तुल्य समझकर इनका संसर्ग करना उचित नहीं है। मान कषायको जीतकर विनय व नभ्रताको रखते हुए शुद्ध तत्वको जाननेसे ही स्वहित होगा, यह तात्पर्य है। चार करायका स्वरूप। श्लोक-कषायं येन अनंतानं, रागं च अनृतं कृतं । चित्ते कुबुद्धि विश्वासं, नरयं दुर्गतिभाजनं ॥१५॥ ___ अन्वयार्थ-- येन ) जिसने ( अनन्तानं ) अनन्तानुवन्धी ( कषाय ) कषाय (च) तथा ( अनृतं रागं) मिथ्यात्वसे राग (कृत) किया है उनके (चित्ते) चित्तमें ( कुबुद्धि विश्वासं ) मिथ्याज्ञान व मिथ्या विश्वास रहता है जिससे ( नरय दुर्गतिभाजनं ) वे नरकादि दुर्गतिके भाजन होते हैं। विशेषार्थ-ऊपर लिखित सात व्यसनों में आसक्ति तथा आठ मदोंमें लीनता उनही प्राणियोंको होती है जो अनन्तानुबन्धी कषायोंके उदयके आधीन है। तथा मिथ्यात्यके उदयसे पर्याय बुद्धि होरहे हैं, जिनको अपने स्वरूपकी कुछ भी खबर नहीं है। मिथ्यात्वकी सहकारी कषायको अनन्तानुबन्धी कहते हैं। इसकी वासना दीर्घ काल तक चली जाती है। अनन्तानुबन्धी भी क्रोध, मान, माया, लोभके चार दृष्टांत हैं। जैसे पाषाण में रेखा बनाई जावे व बहुत दीर्घकालमें मिटे ऐसा क्रोध जो बहुत काल में मिटे सो अनंतानुबंधी क्रोध है। पाषाणका खंभा जैसे नमे नहीं खंड होजाय तोभी नमे नहीं ऐसा मान जिसके हो वह अहंकारमें रहे व कभी विनयरूप न प्रवर्त, दीर्घकाल तक भी नम्र न हो सो अनंतानुपन्धी मान है। वांसका वीडा जैसा कुटिल होता है
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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