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________________ मो.मा. प्रकाश -- को इष्ट अनिष्ट उपजावें तो किछु पदार्थनिका कर्त्तव्य नाहीं । जो पदार्थनिको इष्ट अनिष्ट माने सो झूठ है तातें यह बात सिद्ध भई कि पदार्थनिकों इष्ट अनिष्ट मानि तिनविषै राग द्वेष | करना मिथ्या है । इहां कोऊ कहै कि बाह्य वस्तुनिका संयोग कर्मनिमित्ततै बने है तो कर्म| निविष तौ राग द्वेष करना। ताका समाधान, कर्म तो जड़ हैं उनकै किछू सुखदुख देनैकी इच्छा नाहीं । बहुरि वै स्वयमेव कर्मरूप परिणमें नाहीं। याके भावनिका निमित्ततें कर्मरूप हो हैं। जैसे कोऊ अपने हाथ भाटा (पत्थर) लेय. अपना सिर फोरै तौ भाटाका कहा दोष है ? तैसें ही जीव अपना रागादिक भावनिकरि पुद्गलकों कर्मरूप परिणमाय अपना बुरा करै तौ कर्मके कहा दोष है। ताः कर्मसौं भी रागद्वेष करना मिथ्या है। या प्रकार परद्रव्यनिकौं इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करना मिथ्या है। अर || यह इष्ट अनिष्ट मानि रागद्वेष करै तातै इनि परिणामनिकौं मिथ्या कह्या है। मिथ्यारूप जो परिणमन ताका नाम मिथ्याचारित्र है। अब इस जीवकै रागद्वेष होय है, ताका विधान वा विस्तार दिखाइए है प्रथम तो इस जीवकै पर्यायविर्षे अहंबुद्धि है सो पापकों वा शरीरको एक जानि प्रवः | है। बहुरि इस शरीरविषै आपको सुहावै ऐसी इष्ट अवस्था हो है, तिसविषै राग करै है। आपकौं न सुहावै ऐसी अनिष्ट अवस्था है तिसविषै द्वेष करै है। बहुरि शरीरकी इष्ट अवस्थाके कारण % 3D
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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