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________________ .मा. काश जैसे' पुत्रहोनेका कारण बुद्धिपूर्वक तौ विवाहादिक करना है, अर अबुद्धिपूर्वक भवितव्य है । तां पुत्रार्थी विवाहादिकका तौ उद्यम करै, अर भवितव्य स्वयमेत्र होय, तब पुत्र होय । तैसें विभाव दूर करनेके कारण बुद्धिपूर्वक तौ तत्त्वविचारादिक हैं अर अबुद्धिपूर्वक मोहकर्म का उपशमादिक हैं ! सो ताका अर्थी तत्त्वविचारादिकका तौ उद्यम करे, घर मोहकर्मका उपरामादिक स्वयमेव होय, तंत्र रागादिक दृरि होंय । यहां ऐसा कहै कि - जैसे विवाहादिकभी वितव्य आधीन हैं, तैसे तत्त्वविचारादिक भी कर्मका क्षयोपशमादिककै आधीन हैं, ताते |उद्यम करना निरर्थक है । ताका उत्तर— ज्ञानावरणका तौ क्षयोपशम तत्त्वविचारादि करने योग्य तेरै भया है । याहोतें उपयोगक यहां लगावनेका उद्यम कराइए है। असंज्ञी जीवनिकै क्षयोपशम नाहीं है, तो उनको काहेको उपदेश दीजिए है । बहुरि वह कहै है— होनहार होय, तौ तहां उपयोग लागे, बिना होनहार कैसें लागे । ताका उत्तर जो ऐसा श्रद्धान है, तौ सर्वत्र कोई ही कायका उद्यम मति करे। तू खान पान व्यापारादिकका तो उद्यम करै, अर यहां होनहार बतावै । सो जानिए है, तेरा अनुराग यहां नाहीं । मानादिककरि ऐसी झूठी बातें बनावे है। या प्रकार जे रागादिक होतैं तिनकरि रहित मानें हैं, ते मिथ्यादृष्टी जानने । ३००
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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