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मो.मा.
प्रकाश
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जानें है । जाकों स्वभाव जाने है, ताक बुरा कैसें माने, वा नाके नाशका उद्यम काहेक कर । सो यह श्रद्धान भी विपरीत है । ताके छुड़ावनेकों स्वभावकी अपेक्षा रागादिककों भिन्न कहे हैं । अर निमित्तकी मुख्यताकरि पुद्गलमय कहे हैं। जैसें वैद्य रोग मेव्या चाहे है । जो शीत का अधिकार देखे, तौ उष्ण औषधि बतावै अर आतापका आधिक्य देखे, तौ शीतल औषधि बतावे । तैलें श्रीगुरु रागादिक छुड़ाया चाहें हैं। जो रागादिक परका मानि स्वच्छंद होय, निरुद्यमी होय, ताकों उपादानकारणकी मुख्यताकरि रागादिक आत्माका है ऐसा श्रद्धान कराया । बहुरि जो रागादिक आपका स्वभाव मानि तिनिका नाशका उद्यम नाहीं ताक निमित्त कारणकी मुख्यताकरि रागादिक परभाव हैं, ऐसा श्रद्धान कराया है। विपरीत श्रद्धानते रहित भए सत्यश्रद्धान होय, तब ऐसा मानें- - ए रागादिक भाव आत्माका स्वभाव तौ नाहीं, कर्मके निमित्ततैं आत्मा के अस्तित्वविषै विभावपर्याय निपजे हैं । निमित्त मिटे इनका नाश होतैं स्वभाव भाव रहि जाय है । तातैं इनके नाशका उद्यम करना । यहां प्रश्न- जो कर्मका निमित्त ए हो हैं, तौ कर्मका उदय रहै तावत् विभाव दूरि कैर होय । ता याका उद्यम करना तौ निरर्थक है । ताका उत्तर
करे है,
दोऊ
एक कार्य होनेविषै अनेक कारण चाहिए है । तिनविषै जे कारण नको तो उथम करि मिलाचे घर शत्रुद्धि पूर्वक कारण स्वयमेव मिलें - तब
बुद्धिपूर्वक होंय, तिकार्यसिद्धि होय ।
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