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लोक-कर्म अष्ट विनिर्मुक्तं, मुक्तिस्थाने य तिष्ठते ।
___ सो अहं देहमध्येषु, यो जानाति सः पंडितः॥४३॥ अन्वयार्थ (बष्टकर्म विनिर्मुक्कं) आठों कोसे रहित सिद्ध भगवान (मुक्तिस्थाने य) सिरक्षेत्रमें (तिष्ठते) विराजते हैं (सो) वही ( अहं) मैं (देहमध्येषु ) इस शरीरके बीच में है (यो) जो तत्वज्ञानी (मानाति) ऐसा पहचानता है (सः) वही (पंडितः) पंडित है।
विशेषार्थ-व्यार्षिक नयसे देखा जाये तो सर्व ही आत्माएं समान गुणधारी शुद्ध हैं। पचपि प्रदेशोंकी अपेक्षा या व्यक्तिपनेकी अपेक्षा हरएक आस्मद्रव्यकी सत्ता भिन्न रूप है तथापि गुण व स्वभावोंकी अपेक्षा सब एक रूप हैं। इसी दृष्टिसे जब ज्ञानी देखता है तो सिख भगवानमें और अपने शरीरमें विराजित भात्मामें कोई भेद नहीं देखता है। सिर भगवानका आत्ता ज्ञानावरणादि आठ कोके बन्धनसे रहित शुद्ध है वैसे ही यह आरमा जो कर्म संयोगकी अपेक्षा संसारी झलकता है वही द्रव्य दृष्टिसे कमासे भिन्न सिद्धवत् शुद्ध प्रतीतिमें आता है। सिद्ध भगवानका निवास लोकाकाशके अग्रभागमें तनुवातवलयके भतिर है वहां वे पुरुषाक र चैतन्यमई अपने आपमें मगन परमगम्भीर आत्मरस वेदन करते हुए परम कृतकृत्य समदर्शी विराजमान हैं । इस अपने आत्माका निवास उस आकाशमें है जो इस शरीरसेव्याप्त है। सिद्धक्षेत्र भी आकाश है। शरीरका क्षेत्र भीआकाश है। इस कारण यदि शरीरको ही शुद्धात्माका सिद्धक्षेत्र कहें तो कोई आपत्ति नहीं स्वरूपसे वह आत्मा जैसा शरीरमें है वैसासिद्धक्षेत्रमें है। शुद्ध सुवर्णकी डली रतन-पिटारीमें रक्खी हुई जैसी है वैसे ही वह कीचड़ में सनी हुई है। वह कीचड़में पडी हुई सुवर्णपनेको कभी खोती नहीं। वैसे यह आत्माराम कार्मण, तैजस, औदारिकादि शरीरोंके भीतर रहता हुआ भी अपने आत्मद्रव्यके स्वभावको कभी त्यागता नहीं है। इस तरह जो सिद्धवत् अपने आत्माको अपनी देहके भीतर अनुभव करता है वही पंडित है। अन्य कोई मात्र शब्दोंका ज्ञाता पंडित नहीं है किंतु जड़ मुर्ख है। योगसारमें कहते हैं
सत्य पढ़तह ते विभड अप्पाजे ण मुणंति । तिह कारण ऐ नीव फुडु ण हु णिम्वाण कहति ॥ १२॥