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________________ वारणतरण ॥४८॥ श्रावकाचार श्लोक-देवं च ज्ञानरूपेण, परमेष्ठी च] संजुतं । सो अहं देहमध्येषु, यो जानाति स पंडितः ॥ ४२ ॥ अन्वयार्थ (ज्ञानरूपेण) परम सहज स्वाभाविक शुद्ध ज्ञानकी अपेक्षा (परमेष्ठी , संजुत) अरहतादि पाच परमेष्ठी सहित (च देवं) जो कोई परमात्मा देव है (सो) वही ( अई) मैं (देहमध्येषु ) इस अपने ॐ शरीरके मध्य में तिष्ठता हूँ। (यो) जो कोई सम्पदृष्टी (जानाति ) ऐसा अनुभव करता है (स) वही ४ (पंडितः ) पंडित है। विशेषार्थ—पंडा अर्थात् प्रज्ञा या विवेकबुद्धि जिसके हो वह पंडित कहलाता है । जो पंडित ५ र है वही सम्यग्दृष्टि है, जो सम्परदृष्टी है वही पंडित है, अन्य कोई व्याकरण न्याय साहित्य छंद. अलंकारका ज्ञाता महावादी शास्त्रज्ञ पंडित नहीं है। यदि धुरंधर शास्त्रज्ञ होते हुए वह सम्यग्दृष्टी है,आत्मज्ञानी है तो वह सच्चा पंडित है। यदि अनात्मानुभवी है तो वह शास्त्रज्ञ है तो भी अपंडित है। सम्यग्दृष्टीकी दृष्टि द्रव्यकी ओर मुख्यतासे रहती है वह जब स्वाभाविक ज्ञान आदि गुणोंकी अपेक्षा आत्मा पदार्थका अवलोकन करता है तो उसे अरहंत सिर आचार्य उपाध्याय व साधु इन पांच परमेष्ठियोंके भीतर जो शुखात्मा दिखलाई पड़ता है वैसा ही शुखात्मा उसे अपने इस शरीरमें विराजित दिखलाई पड़ता है, जो शरीरमें तिष्ठे हुए अपने आत्माको ही द्रव्य दृष्टिसे परमात्मा रूप देखता है इसमें और पांच परमेष्ठीकी आत्माओंमें कोई भेद नहीं देखता है। र समानताका भाव पाता है वही यथार्थ ज्ञानी सम्यग्दृष्टी मोक्षमार्गी है। योगसारमें कहते हैं- जो परमप्पा सो नि दउं को हउं सो परमप्पु । इउ नाणेविणु नोइमा अण्ण न करहु वियप्पु ॥ २२ ॥ भाषार्थ-जो परमात्मा है सो ही मैं ई, जो मैं हूँ सोही परमात्मा है ऐसा समझकर हे योगी! और दूसरा कोई भेद विकल्प त न कर । वास्तव में सोई मंत्रका भाव इस श्लोकमें बताया गया है। साहका जप व सोहका ध्यान परमात्मा और देहमें विराजित आत्मामें एकता करा देता है और शुद्ध साम्यभावमें लेजाता है।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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