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वारणतरण
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विशेषार्थ-इसका भाव यह है कि जहांतक मिथ्यादर्शन और अनन्तानुबन्धी कषायोंका उदय
पायाका उदयश्रावकाचार रहता है वहांतक आत्माके ऊपर अज्ञान अंधकार छाया रहता है व अनेक दोष दीख पड़ते हैं। एक दफे सम्यग्दर्शन रूपी सूर्यका उदय हुआ कि सर्व अज्ञानका अंधेरा व अंधेरेमें होनेवाले सर्व दोष उसी तरह मिट जाते हैं जिस तरह सूर्यके उदय होते ही रात्रिका अंधेरा व रात्रि सम्बन्धी सर्व दोष मिट जाते हैं। सम्यग्दर्शन वास्तव में बाल सूर्यवत् है, यही बढते२ मध्याह्नका प्रतापशाली केवलज्ञानरूपी सूर्य होजाता है । जैसे सूर्यके उदय होनेसे सुमार्ग कुमार्ग व सर्व जगतके पदार्थ
प्रगट रूपसे अलग २ दीखते हैं उन पदार्थों के साथ कैसा व्यवहार करना यह सब विधि समझमें आ • जाती है। उसी तरह सम्यग्दर्शनके प्रगट होते ही ऐसा सम्यग्ज्ञान झलक जाता है जिससे लोका
लोकके छहों द्रव्योंके द्रव्य गुण पर्याय अलग२ झलक जाते हैं। आत्मा और अनात्मा अनादिकालसे मिले हुए हैं, दूध व पानीके समान एकत्र होरहे हैं तथापि अपने २ लक्षण भेदसे जुदे ५ दिखलाई पडते हैं। सम्यक्तीको शुद्ध निश्चयनयसे पदार्थों के अवलोकनकी शक्ति पैदा होजाती है, जिससे वह वृक्षादिमें व पशु पक्षी आदिमें सर्व प्राणी मात्रके भीतर आत्मद्रव्यको एकरूप शुद्ध ज्ञानदर्शन सुख वीर्यमय देखता है। पहले जो उसे विकाररूप ही अपना व परका आत्मा दीखता था अब विकार रहित अपना व परका आत्मा दीखता है। मिथ्यात्वके अन्धेरे में रागद्वेषकी तीव्रता थी। संसारासक्तपना था, स्वार्थ सिद्धिके लिये अन्यायसे वर्तन था, पांच इंद्रियोंकी लम्पटता थी। सम्यक्त होते ही अंतरंगमें वैराग्य व साम्धभावकी जागृति होजाती है। संसारकी आसक्ति मिट जाती है। विषयभोगकी तृष्णा विदा होजाती है । जगतके व्यवहारमें अहिंसातत्व सामने आके खडा रहता है, जिससे वह अन्यायके साथ वर्ताव न करता हुआ न्याय, दया, सभ्यता, परोपकारके साथ व्यवहार करता है। पहले पर पदार्थके संयोगमें आभिमान करता था, वियोगमें घोर विषाद करता था। सम्यक्तके होते ही कमौके कार्यका ज्ञानी मात्र ज्ञाता दृष्टा रहता है। अच्छे व बुरे उदयमें तन्मय नहीं होता है । संसारके कारणीभूत सर्व भावोंके दोष सम्यक्त होते ही मिट जाते हैं।
श्लोक-सम्यक्तं ये न पश्यंति, अंधा इव मृढत्रयं । कुज्ञानं पटलं यस्य, कोशी उदय भास्करं ॥ २१४ ॥
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