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वारणतरण
॥२१॥
अन्वयार्थ-(ये सम्यक्तं न पश्यति) जो कोई सम्यग्दर्शनका अनुभव नहीं करते हैं वे ( अंधा इव)
Y.श्रावकाचार अंधोंके समान हैं। ( यस्य पटलं मूढत्रय कुज्ञान ) जिनकी ज्ञान चक्षुके ऊपर तीन मूढता व तीन कुज्ञानका पटल या परदा होरहा है। जैसे (कोशी) एक किसी बंद कोठरी में बैठा हुआ या परदेके भीतर छिपा हुआ प्राणी (भास्करं उदय) सूर्यके उदयको नहीं देख सकता है।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शनरूपी सूर्यका दर्शन उसीको होगा जो अज्ञानके परदेको हटाएगा । जैसे पर या बंद कोठरीमें बैठा हुआ मानव सूर्यके उदयको नहीं देख सकता है यद्यपि सूर्य प्रकट है तथापि उसको नो अंधेरा ही दिख पड़ता है, उसी तरह जिसके ज्ञान नेत्र देवमूढ़ता, पाखंड मूढता व लोक मूढतामे मुद्रित हैं व जो कुमति, कुश्रुत व कुअवधिके मिथ्याज्ञानमें वर्त रहा है उसके सम्यग्दर्शनरूपी सूर्य जो अपने ही आत्मामें प्रकाशमान है नहीं दीखता है। वह अपने आत्माको रागी, द्वेषी, मोही ही अनुभव करता है। अभिप्राय यह है कि जो सम्यग्दर्शनका प्रकाश करना चाहें सनको पचित है कि तीन मूढताओंको पहले त्यागे, किसी लौकिक मिथ्या अभिलाषामें पड़कर मिथ्यादेवोंका, मिथ्या पाखण्डी साधुओंका व मिथ्या लौकिक क्रियाओंकी प्रतिष्ठा न करें। इस बातका निश्चय रक्खें कि जगतमें सुख दुख अंतरंगमें पुण्य पापके उदयसे होता है, बाहरी कारण यथायोग्य निमित्त है। कोई कुदेवकी पूजा भक्ति पुण्यको नहीं उत्पन्न कर सकी है न पापको काट सती प्रथम यह निश्चय होना जरूरी है कि परिणामोंसे यह जीव पाप या पुण्यका बंध करता
अाभ भाव पाप व शुभ भाव पुण्यके बंधके कारण हैं। इसलिये जिस प्रकारकी पूजा व र भक्तिसे भावों में मंद कषायपना झलके, रागद्वेषकी कमी हो, वीतरागताका अंश प्रगटे थे तो कार्य,
कारी हैं। परन्तु जिनसे कषाय बढे, राग बढ़े, वें अकार्यकारी हैं। अतएव सर्वज्ञ वीतराग भग वानकी भक्ति वास्तवमें परिणामों को विशुद्ध करनेवाली है। इसलिये जो सम्यक्तके सूर्यको देखना चाहें उनको सच्चे देव, गुरू, धर्मकी भक्ति करनी चाहिये । मूढताईमें पडकर अन्धकारका बल और अधिक न बढाना चाहिये । इन तीन मूढताओंको त्याग देनेसे व जिनवाणीका प्रेमपूर्वक भाकरनेसे कुमति व कुश्रुत ज्ञानका अन्धेरा हटता चला जायगा-अभ्यास करते २ एक समय ऐसा आजायगा जो यकायक सम्यग्दर्शन सूर्यका उदय होजावे।
॥२१००