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________________ R१९॥ श्लोक-सम्यक्तं यस्य खूवन्ते, श्रुतज्ञानं विचक्षणं । श्रावकाचार ज्ञानेन ज्ञान उत्पाद्य, लोकालोकस्य पश्यते ॥ २१५॥ अन्वयार्थ-(यस्य) जिस आत्माके भीतर (सम्यक्तं) सम्यग्दर्शन तथा (विचक्षणं श्रुतज्ञान) यथार्थ " श्रुतज्ञान (खूबन्ते ) परिणमन कर रहा है वहां ही (ज्ञानेन ) इस भाव श्रुतज्ञानके द्वारा (ज्ञान उत्पाचं) ४ ऐसा ज्ञान उत्पन्न होता है जिससे (लोकालोकस्य पश्यते) लोकालोक दिखलाई पड़ते हैं। विशेषार्थ-यहां यह बताया है कि सम्यग्दर्शन सहित जिसको शास्त्रका यथार्थ ज्ञान है वही अपने आत्माके शुद्ध स्वरूपको ठीक २ अनुभव कर सक्ता है। सर्व बादशांग वाणीका सार स्वानु. भव है। यही स्वानुभव धर्मध्यान है व यही स्वानुभव शुक्लध्यान है। इस हीके प्रतापसे घातिया काका क्षय होकर केवलज्ञानका लाभ होता है। केवलज्ञानका कारण यथार्थ स्वसंवेदन ज्ञान है। इसी ज्ञानसे सर्व आवरण दुर होजाता है और केवलज्ञानका प्रकाश होजाता है। इस कथन से यह बात दिखलाई है कि जिसको अपना परमात्म पद प्राप्त करना हो उसको उचित है कि सम्यग्दर्शनका लाभ करे और शास्त्रोंको भलेप्रकार मनन करे। जिनवाणीके अभ्यास व मननसे ही घातिया कोंकी स्थिति घटती है, सम्यग्दर्शनके घातक काका बल क्षीण होता है। सम्यग्दर्शन होनेके पीछे भी चारित्रकी शक्ति बढानेके लिये व अनन्त ज्ञानका प्रकाश होनेके लिये शास्त्रका विचार व आत्मानुभवका अभ्यास बराबर रखना जरूरी है। श्लोक-सम्यक्तं यस्य न साधते, असाध्यं व्रत संजमं । ते नरा मिथ्याभावेन, जीवंतोऽपि मृता इव ॥ २१६ ॥ अन्वयार्थ (यस्य सम्यक्तं न साधते) जिससे सम्यग्दर्शनका साधन नहीं होसक्ता है उससे (व्रत Y संगम मसाध्यं) ब्रत व संयमका पलना असाध्य है। (ते नरा) वे मानव (मिथ्याभावेन) मिथ्यात्वकी र भावना सहित होनेसे ( जीवंतोऽपि ) जीवते हुए भी (मृता इव) मृतकके समान ही हैं। विशेषार्थ-यहां यह बतलाया है कि मानव जन्मकी सफलता सम्यग्दर्शनके लाभ व सम्यक्त सहित ब्रत व संयमके पालने में है। जिन मानवोंने मिथ्यात्वका ही सेवन किया उनका जीना न
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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