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________________ धारणवरण ॥१२०॥ >>>> जीना समान है । वे मृतकके तुल्य ही हैं क्योंकि उन्होंने अत्यन्त दुर्लभं मानव जन्म पानेका कोइ सार नहीं पाया। जिस मिथ्यात्वके कारण एकेन्द्रिय पर्याय में अनन्तकाल विताना पडता है व बेंदियादि कीटों में व पशु पक्षियोंमें व नरकमें घोर कष्ट उठाना पडता है, उस मिध्यात्वको दूर करनेका व सम्पतके लाभ होनेका अवसर मन रहित पंचेंद्रियों तक में नहीं है । जिस सम्पक्तका लाभ सुगमता से इस मानव पर्याय में होसक्ता है । यदि किसीने ऐसे अमूल्य अवसरको पाकर सम्यग्दर्शनका लाभ न किया, उसका साधन न किया व सम्यग्दर्शनके विना व्रत संयम भी यथार्थ न पाला तो सर्व तरहका सुभीता जो सम्यक्त के लाभका मिला था वह निरर्थक गया, इसके सिवाय जिसके परिणामों में सम्यक्त है, भेदविज्ञान है, वह मानव जन्मको संतोष व सुख पूर्वक विता सक्ता है । वह तृष्णाका दास न होकर जलमें कमल के समान गृही जीवन में रह सक्ता है, शुद्धात्माकी भावना से परमानन्दरूपी अमृतका पान कर सक्ता है। वही मुनि या श्रावकका चारित्र यथार्थ व शुद्ध भावसे पाल सक्ता है । सम्यग्दर्शन के विना महान चारित्र भी एकके अंक बिना शून्यके समान निष्फल है। जो सम्पक्ती है, वही जीवित मानव हैं, मिथ्यात्व सहित तो वह मृतक के समान है । श्लोक – उदयं सम्यक्तं यस्य, त्रिलोकं उदयं सदा । कुज्ञानं रागव्यक्तं च मिथ्या माया विलीयते ॥ २१७ ॥ ब्यन्वयार्थ – (यस्य ) जिसकी आत्मा में ( सम्यक्तं उदयं ) सम्यग्दर्शनका प्रकाश होगया है उसके ( सदा ) सदा ही ( त्रिलोकं उदयं ) तीन लोकका प्रकाश है। उसने ( कुज्ञानं रागत्यक्तं च ) कुज्ञान और riको छोड दिया है ( मिथ्या माया विलीयते ) और वहां मिथ्यात्व व मायाका अभाव है । विशेषार्थ — सम्यग्दर्शनका प्रकाश होते ही तीन लोकमें भरे हुए जीव पुद्गल धर्म अधर्म आकाश काल इन छः द्रव्योंका यथार्थ स्वरूप झलक जाता है । मेरा आत्मा सर्व अनात्माओंसे व अन्य आत्माओं से भिन्न है, एक ज्ञानानंद स्वभावमई है ऐसा प्रकाश होजाता है। यदि शास्त्रका ज्ञाता है तो अपनेको सर्व ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, रागादि भाव कर्म व शरीरादि नोकर्मसे भिन्न अनुभव करता है । जो शास्त्रका ज्ञाता नहीं व अन्तरङ्ग विरोधी कर्म प्रकृतियोंके उपशमसे जिसको सम्पग्दर्शन होजाता है वह भी अपनेको यथार्थ अनुभव कर लेता है। सम्यक्तके होते ही ज्ञान थोडा हो श्रावकाचार । ।। २२० ॥
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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