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भारणतरण
॥२२॥
या बहुत सब सम्यग्ज्ञान होजाता है, रागदेषका गाढा मैल कट जाता है। यदि चारित्र मोहके
ॐ श्रावसकर उदयसे कुछ राग भाव होता भी है तो उसे वह कर्मकृत विकार जानता है, अपना स्वभाव नहीं जानता है व उसके मेटने के लिये भी अपना आत्मवल प्रगट करता रहता है। उसके भावों में न तो संसारमई अहंकार ममकार रूप मिथ्याभाव है और न किसी प्रकारका मायाचार है। वह सरल भावों से मोक्षमार्गी होकर चलता है व जीवनको सफल बनाता है। सम्यग्दर्शनका लाभ परम लाभ है, सभ्यक्तीका जीवन प्रशंसनीय जीवन है । सम्यक्ती सदा सुखी रह सक्ता है।
श्लोक-सम्यक्तयुत नरयम्मि, सम्यक्तहीनो न च क्रिया।
सम्यक्तं मुक्ति मार्गस्य, हीनो सम्यक् निगोदयं ॥ २१८॥ ___ अन्वयार्थ-(सम्यक्त युत नरयम्मि) सम्यग्दर्शन सहित नरकमें रहना अच्छा है ( सम्यक्त होनो न च ४ क्रिया) सम्यग्दर्शनसे जो शून्य है उसके कोई भी क्रिया यथार्थ नहीं है ( सम्यक्तं मुक्ति मार्गस्य) मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शन मुख्य है (सम्यक् हीनो निगोदय) जो सम्यग्दर्शनसे हीन है वह निगोदमें चला जाता है।
विशेषार्थ-यहां भी सम्यग्दर्शनका महात्म्य बताया है कि सम्यग्दर्शन सहित हो और यदि * नरकमें भी कर्मानुसार रहना पडे तो कोई हर्ज नहीं है। वहांपर भी सम्यक्ती आत्मीक आनन्दका
अनुभव कभी कभी करता ही रहता है तथा सम्यग्दर्शनके प्रभावसे नरकके कष्टोंको कोदय जानकर समताभाव रखता है। सातों नरकों में सम्यक्त पैदा होजाता है तथा पहले नर्कमें सम्यग्दर्शनको साथ लेकर भी जासकता है। यदि सम्यग्दर्शन होनेसे पहले नरक आयु बांधली हो । सम्यग्दर्शनके विना मुनि धर्म व श्रावक धर्मकी कोई भी क्रिया मोक्षमार्ग नहीं है, मात्र पुण्य बन्ध करानेवाली है। सम्यग्दर्शन मोक्षमार्गमें प्रथम इसीलिये कहा गया है कि इसके विना ज्ञान कुज्ञान है, चारित्र कुचारित्र है। जो सम्यक्ती नहीं हैं वे अज्ञान भावसे जगतमें आचरण करते हुए पर्याय बुद्धिके गाढ ममत्वके कारण एकेन्द्रिय साधारण वनस्पति काय नाम कर्मको यांधकर निगोदमें चले जाते हैं। वहां दीर्घकाल तक घोर कष्ट पाते हैं। वहांसे उन्नति करके फिर मानव गति पाना अतिशय कठिन होजाता है। अतएव इस मानव जन्ममें जिस तरह बने उद्यम करके सम्यग्दर्शनका लाभ कर लेना चाहिये। यही भव समुद्रसे तारनेवाला खेवटिया है। यही इस लोक परलोक दोनोंको सुधारनेवाला है।