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मो.मर भकाश
Asstainment
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चित्रं चेत्यगृहे गृहीयति निजे गच्छे कुटुम्बीयति
स्वं शक्रीयति बालिशीयति बुधान् विश्वं वराकीयति ॥ याका अर्थ--देखो क्षुधाकरि कृश कोई रंकका पालक सो कहीं चैत्यालयादिविष दीक्षा धारि कोई पक्षकरि पापरहित न होतासंता प्राचार्यपदों प्राप्त भया। बहुरि वह चैत्यालयविर्षे || अपने गृहवत् प्रपर्से हैं, निजगच्छविणे कुटुम्बवत् प्रवर्ते है, आपकों इंद्रबत् महान् मान है, ज्ञानीनिकौं बालकवत अज्ञानी माने है, सर्वगृहस्थनिकों रंकवत् माने है । सो यह बड़ा आश्चर्य भया है । वहुरि 'परहिउ न च वर्द्धितो न च न च क्रीतो' इत्यादि काव्य है। जिनकरि जन्म भया नाहीं, बध्या थोरा पोल लिया नाही, देणदार भया नाही, इत्यादि कोई प्रकार सम्बन्ध नाहीं, अर गृहस्थाने मनगभवत् बहावै, जोरावरी दानादिक ले, सो हाय हाय यह जगत् राजाकरि रहित है । केणियाय पूछनेवाला नाहीं। यहां कोऊ कहै, ए तो श्वेताम्बरविरचित | उपदेश है तिनको साक्षी काहेकों दई । ताका उत्तर
जैसें नीचापुरुष जाका निषेध करे, ताका उत्तमपुरुषके तो सहज ही निषेध किया । जैसे जिनके वस्त्रादि उपकरण कहे, वे हू जाकरि निषेध करें, तो दिगम्बरधर्मविषै तो ऐसी विप-1 रीतिका सहज ही निषेध भया । बहुरि दिगम्बरग्रंथनिविषे भी इस श्रद्धानके पोषक वचन हैं। तहां श्रीकुन्दकुन्दाचार्यकृत षटाविव ( दर्शनपाहुड़में ) ऐसा कहा है,
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