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दोषणवि अनुणिअसारा दूसमिसनयम्मि बुड्दति ॥१॥ कालदोषते गुरु जे हैं, ते भाट भए । भाटवत् शब्दकरि दातारकीस्तुतिफरिकै दानादि प्रहै हैं । सो इस दुखमा कालविर्षे दातार वा पात्र दोक ही संसारविर्षे डूबे हैं। बहुरि तहां ।।। कह्या है,
सप्पे दिठे णासइ लोओ णहि कोवि किंपि अनेई ।
जो चयइ कुगुरु सप्पं हा मूढा भणइ तं दुढें ॥२॥ ___सर्पकों देखि कोई भागे, ताकी तो लोक किछु भी कहै नाहीं । हाय हाय देखो, जो कुगुरुसर्पको छोरे, ताहि मूढ़ दुष्ट कहें, बुरा बोलें।
सप्पो इक्कं मरणं कुगुरु अर्थताइ देइ मरणाई।
तो वर सप्पं गहियं मा कुगुरुसेवणं भव ॥ १॥ अहो सर्पकरि तो एक ही बार मरण होय पर कुसुरु अनंतमरण दे है, अनन्तदार जन्म । मरण करावे है। ताते हे भद्र, सांपका ग्रहण तो भला अर कुगुरुका ग्रहण मला नाहीं । व. हुरि संघपष्टविर्षे ऐसा कह्या है,
सुरक्षामः किल कोोप रंकशिशुकः प्रयुज्य चैत्ये कचित् कृत्वा किंच व पक्षमक्षतकलिः प्राप्तस्तदाचार्यकम् ।
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