SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 737
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मो.मा. आत्माकों आपो अनुभक्ते शुभाशुभभावनितें उदासीन हो है । अर अब विषय कषायाशक्त ।। प्रकाशजीव मुनिपद धारें, तहां सर्वसावधका त्यागी होय पंच महाव्रतादि अंगीकार करें। बहुरि स्वेत । रक्तादि वस्त्रनिको ग्रहें, वा भोजनादिवि लोलुपी होय, वा अपनी अपनी पद्धति बधावनेकों उद्यमी होय, वा केई धनादिक भी राखें, वा हिंसादिक करें, नाना प्रारम्भ करें। सो स्तोक। परिग्रह ग्रहणेका फल निगोद कह्या है, तो ऐसे पापनिका फलतौ अनन्तसंसार होय ही होय। । बहुरि लोकनिकी अज्ञानता देखो, कोई एक छोटी प्रतिज्ञा भंग करें, ताकों तो पापी कहें, अर ऐसी घड़ी प्रतिज्ञा भंग करते देखें, तिनकों गुरु मानें, मुनिवत् तिनका सन्मानादि करें । सो || शास्त्रविष कृतकारित अनुमोदनाका फल कह्या है । तातै वैसा ही फल इनकों भी लागे हैं। मुनिपद लेनेका तो क्रम यह है-पहलें तत्वज्ञान होय, पीछे उदासीन परिणाम होय, परिषहादि सहनेकी शक्ति होय, तब वह स्वयमेव मुनि भया चाहे । तब श्रीगुरु मुनिधर्म अंगीकार करावें । यह कौन विपरीत जे तत्त्वज्ञानरहित विषयकषायास जीव तिनकों मायाकरि वा।। लोभ दिखाय मुनिपद देना,पीछे अन्यथा प्रवृत्ति करावनी;सो यह बड़ा अन्याय है । ऐसें कुगुरु का वा तिनके सेवनका निषेध किया । अब इस कथनके दृढ़करनेकों शास्त्रनिकी साक्षी दीजिए है । तहां उपदेशसिद्धांतरत्नमालाविषै ऐसा कया है,-- गुरुणो भट्टा जाया सदे थुणिऊलिति दाणाई ।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy