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________________ .मा. HOMoroclockasmootaceofaKHOOKGoodn036000crorceraokalaonkaroondlorOKNOOKISHOROGeogSjoonr saan जैसे उपवासका नाम धराय कणमात्रका भी भक्षण करे, तो पापी है। अर एकंतका ( एकासनका ) नाम धराय किंचित् ऊन भोजन करे, तो भी धर्मात्मा है । तैसें उच्चपदवी | का नाम धराय तामें किंचित् भी अन्यथा प्रवर्चे तो महापापी है। ,अर नीची पदवीका नाम धराय, किछू भी धर्म साधन करे, तो धर्मात्मा है । तातें धर्मसाधन तो जेता घनै, सेता कीजिए । यामें किछु दोष नाहीं । परन्तु ऊँचा धर्मात्मा नाम धराय नीची क्रिया किए महापापी ही हो है । सोई षट्पाहड़विष कुन्दकुन्दाचार्यकरि कहा है जह मायरूबसरिसो तिलतुसमिचं ण गहदि भत्थेसु । जइ लेइ अप्प बहुलय तत्तो पुण जाइ णिग्गोयं ॥१॥ ___ याका अर्थ-मुनिपद है, सो यथाजातरूप सदृश है । जैसा जन्म होते था, तैसा नग्न है। सो वह मुनि अर्थ जे धन वस्त्रादिक वस्तु तिनविषे तिलतुषमात्र भी ग्रहण न करै । ब। हुरि कदाचित् अल्प पा पहुस्व प्रहै, तो तिसतें निगोद जाय । सो देखो, गृहस्थपनेमें बहुत परिग्रह राखि किछु प्रमाण करे, तो भी स्वर्गमोक्षका अधिकारी हो है पर मुनिपनेमें किंचित् परिग्रह अंगीकार किए भी निगोद जानेवासा हो है। तावे ऊँचा नाम धराय नीची प्रवृत्ति युक्त नाहीं । देखो, टुंडावसर्पिणी कालविषे यह कलिकाल प्रपत्रे है। ताका दोषकरि जिन- २७२ मतविर्षे भी मुनिका स्वरूप तो ऐसा जैसा पाय अभ्यन्तर परिमहकायाय नाही, केवल अपने CrocracoofaxaVERNOOR200049000otasoolaadootadorkasootiGOOTOS000000012GHOOT0001pclooratoofadartarior -
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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