________________
मो.मा. प्रकाश
याविषै सरागीनिविषे महादेवकौं प्रधान का अर वीतरागीनिविषै जिनदेवकौं प्रधान कया है । बहुरि सरागभाव वीतरागभावनिविषै परस्पर प्रतिपक्षीपना है, सो यह दोऊ भले
विषै एक ही हितकारी है, सो वीतराग ही हितकारी हैं जाके होते तत्काल आकुलता मिटे, स्तुतियोग्य होय ! आगामी भला होना सर्व कहें । अर सरागभाव होते तत्काल आकुलता होय, निन्दनीक होय, आगामी बुरा होना भासै, तातै जामैं वीतरागभाव का प्रयोजन ऐसा जैन मत सो ही इष्ट है । जिनमें सरागभावके प्रयोजन प्रगट किए हैं ऐसे अन्यमत अनिष्ट हैं । इनिक समान कैसे मानिए । तब वह कहै है- -यह तौ सांच, परन्तु अन्यमत की निंदा किए अन्यमती दुःख पावें, औरनिसों विरोध उपजै, तातें काहेकौं निन्दा करिए । तहां कहिए है- जो हम कषायकरि निन्दा करें वा औरनिकों दुःख उपजावैं तौ हम पापी ही हैं । अन्यमतके श्रद्धानादिककरि जीवनिकै तत्वश्रद्वान दृढ़ होय, ताकरि संसारविषै जीव दुखी होय, तातैं करुणाभावकरि यथार्थ निरूपण किया है । कोई विनादोष ही दुःख पावै, विरोध उपजावै, तो हम कहा करें। जैसें मदिराकी बात किए कलाल दुःख पावै, कुशीलकी निन्दा किए वेश्यादिक दुःख पावें, खोटा खरा पहिचाननेकी परीक्षा बतावतैं ठिग दुःख पावै, तो कहा करिए । ऐसें जो पापीनिके भयकरि धर्मोपदेश न दीजिए, तौ जीवनिका भला कैसें होय । ऐसा तो कोई उपदेश नांहीं, जा करि सर्व ही चैन पावें । बहुरि वह विरोध उपजावै, सो विरोध तौ परस्पर हो है । हम लरें नाहीं, वे आप ही उपशांत हो जायगे । हमको तो हमारे परिणा
२०८