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वारणतरण
श्रावकाचार
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श्लोक-एतत्तु गुण साई च, स्वात्मचिंता सदा बुधैः।
___ देवाश्च तस्य पूजते, मुक्तिगमनं न संशयः ॥ ३६६ ॥ अन्वयार्थ-(एतत्तु गुण साई च) इन गुणोंको विचारते हुए (बुधैः सदा स्वात्मचिंता) बुद्धिमानोंको सदा अपने आस्माका चिन्तवन करना चाहिये । (देवाश्च तस्य पूनते) ऐसे सम्यग्दृष्टी देवता भी पूजन करते हैं (मुक्तिगमनं न संशयः) तथा वह मोक्षमें अवश्य जायगा इसमें कोई संशय नहीं है।
विशेषार्थ-बुद्धिमान गृहस्थ आवकोंको प्रथम कहे प्रमाण ७५ गुगाको जो पांच परमेष्ठी में पाए जाते हैं या जो सम्यग्दृष्टी गृहस्थमें होने चाहिये भलेप्रकार ध्यानमें रखना चाहिये तथा मुरुपतासे अपने ही आत्माको भेदविज्ञानके द्वारा शुद्ध निश्चयनयकी सहायतासे, रागादिभाव कोसे, ज्ञानावरणादि द्रव्यकोसे, शरीरादि नो कमोंसे भिन्न अनुभव करना चाहिये । यह अपने आत्माका मनन, विचार व ध्यान सदा ही प्रतिदिन प्रातःकाल, सायंकाल तो अवश्य कुछ देर एकांतमें बैठकर करना चाहिये । जो सचे श्रद्धावान गृहस्थ हैं, पांच परमेष्ठीके भक्त हैं व देव, शास्त्र, गुरुके भक्त हैं उनकी महिमा इंद्रादि देव गाते हैं तथा कभी कोई संकट पड जावे तो उनकी सहायता भी करते हैं। ऐसा गृहस्थ अवश्य मोक्षका पात्र होजाता है। यदि द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव अनुकूल हुआ तो उसी भवसे साधु हो ध्यान करके क्षपक श्रेणी चढकर केवलज्ञानी हो सिद्ध होजाता है। यदि अनुकूल न हुआ तो कुछ जन्मों के पीछे वह अवश्य सिद्ध होजाता है। क्योंकि जिसकी रात्रि दिन भावना अपने आत्माकी तरफ है वह क्यों नहीं भवसागरसे पार होगा व क्यों नहीं बंधनसे मुक्त होगा व क्यों नहीं वह अनन्त सुखको प्राप्त करेगा।
सुगुरु मक्ति। श्लोक-गुरुस्य ग्रंथमुक्तस्य, रागदोषं न चिंतए ।
रत्नत्रय मयं शुद्धं, मिथ्या माया विमुक्तयं ॥ ६६७ ॥