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मो.मा.
कि इनिकरि ऐसे प्रयोजनकी तो सिद्धि ऐसे हो है परंतु जाकरि इंद्रियजनित सुख उपजै दुःख | प्रकाश विनशै ऐसे हु प्रयोजनकी सिद्धि इनिकरि हो है कि नाहीं। ताका समाधान,
जो अरहंतादिविषै स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम हो है ताकरि अघातिया कर्मनिकी साता आदि पुण्यप्रकृतिनिका बंध हो है। बहुरि जो वह परिणाम तीव्र होय तो पूर्वे असाता |
आदि पापप्रकृति बँधी थीं तिनिकों भी मंद करै है अथवा नष्ट करि पुण्यप्रकृतिरूप परिणमावे | है । बहुरि तिस पुण्यका उदय होतें खयमेव इन्द्रियसुखकों कारणभूत सामग्री मिले है। अर | पापका उदय दूरि होते स्वयमेव दुःखकों कारणभूत सामग्री दूर हो है। ऐसें इस प्रयोजनकी
भी सिद्धि तिनकरि हो है । अथवा जैनशासनके भक्तदेवादिक हैं ते तिस भक्तपुरुषकै अनेक 1 इंद्रियसुखकों कारणभूत सामग्रीनका संयोग करावै हैं । दुःखकों कारणभूत सामग्रीनिकों दूरि 1 करै हैं । ऐसें भी इस प्रयोजनकी सिद्धि तिन अरहतादिकनिकरि हो है। परन्तु इस प्रयोजन
ते किछु अपना हित होता नाहीं जातें यह आत्मा कषायभावनितें बाह्य सामग्रीनविषे इष्ट अनिष्टपनों मानि आपही सुखदुःखकी कल्पना करै है । बिना कषाय बाह्य सामग्री किछू सुखदुःख | की दाता नाहीं । बहुरि कषाय हैं सो सर्व आकुलतामय हे तातें इंद्रियजनितसुखकी इच्छा
करनी दुःखतें डरना सो यह भ्रम है। बहुरि इस प्रयोजनके अर्थि अरहंतादिककी भक्ति किए। 1 भी तीवकषाय होनेकरि पापबंध ही हो है तातें आपकौं इस प्रयोजनका अर्थी होना योग्य नाहीं
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