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मो.मा..
प्रकाश
सांचे सुखकी प्राप्ति हो है । अर सर्व आकुलतारूप दुःखका नारा हो है । बहुरि इस प्रयोजन की सिद्धि अरहंतादिकनिकरि हो है । कैसें सो विचारिए हैं, -
आत्मा के परिणाम तीन प्रकार हैं, संक्लेश, विशुद्ध, शुद्ध । तहां तीव्रकषायरूप संक्लेश हैं, मंदकषायरूप विशुद्ध हैं, कषायरहित शुद्ध हैं। तहां वीतराग विशेष ज्ञानरूप अपने स्वभाव के घातक जो हैं ज्ञानावरणादि घातियाकर्म, तिनिका संक्लेश परिणामकरि तौ तीव्रबंध हो है अर विशुद्ध परिणामकरि मंदबंध हो है वा विशुद्ध परिणाम प्रबल होय पूर्वे जो तीव्र बंध भया था ता भी मंद करे है । अर शुद्धपरिणामकरि बंध न हो है । केवल तिनकी निर्जरा ही हो है । सो अरहंतादिविषै स्तवनादि रूप भाव हो है सो कषायकी मंदता लिये हो है तातें विशुद्ध परिणाम हैं । बहुरि समस्त कषायभाव मिटावनैका साधन है, तातें शुद्धपरिणामका कारण है सो ऐसा परिणाम कर अपना घातक घातिकर्मका हीनपनाके होनेतें सहज ही वीतराग विशेषज्ञान प्रगट हो है । जितने अंशनिकरि वह हीन होय तितने अंशनिकर यह प्रगट हो है । ऐसें अरहंतादिक कार अपना प्रयोजन सिद्ध हो है । अथवा अरहंतादिकका आकार अवलोकना वा स्वरूप विचार करना वा बचन सुनना वा निकटवर्त्ती होना वा तिनकै अनुसार प्रवर्त्तना इत्यादि कार्य तत्काल ही निभिभृत होय रागादिकनिकों हीन करे है । जीव अजीवादिकका विशेषज्ञानको उपजावै है तातें ऐसें भी अरहंतादिक करि वीतराग विशेषज्ञानरूप प्रयोजनकी सिद्धि हो है । इहां कोऊ क