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मो.मा.
प्रकाश
| पना है तथापि विद्यमान कालविषै इनकों विशेष जानि जुदा नमस्कार किया है । बहुरि त्रिलोक-12
विषै जे अकृत्रिम जिनबिंब बिराजै हैं मध्यलोकवि विधिपूर्वक कृत्रिम विराजै हैं जिनके दर्श| नादिकतें एक धर्मोपदेश बिना अन्य अपने हितकी सिद्धि जैसें तीर्थंकर केवलीके दर्शनादिकतें | | | | होय तैसें ही हो है, तिनि जिनबिंबनिकों हमारा नमस्कार होहु । बहुरि केवलीका दिव्यध्वनिA करि दिया उपदेश ताके अनुसार गणधरिकरि रचित अंगप्रकीर्णक तिनके अनुसार अन्य || आचार्यादिकनिकरि रचे ग्रंथादिक हे ते सर्व जिनवचन हैं स्याद्वादचिन्हकरि पहचानने यो य हैं
न्यायमार्गते अविरुद्ध हैं तात प्रमाणीक हैं । जीवनिकों तत्वज्ञानके कारण हैं तातें उपकारी हैं| | तिनिकों हमारा नमस्कार होहु । बहुरि चैत्यालय, अर्जिका, उत्कृष्ट श्रावक आदि द्रव्य, अर | तीर्थक्षेत्रादि क्षेत्र, अर कल्याणककाल आदि काल, रत्नत्रय आदि भाव, जे मुझकरि नमस्कार | करने योग्य हैं तिनकों नमस्कार करौं हौं । अर जे किंचित् विनय करने योग्य हैं तिनिका यथा-|| | योग्य विनय करौं हौं। ऐसें अपने इष्टनिका सन्मान करि मंगल किया है। अब ए अरहंतादिक | इष्ट कैसै हैं सो विचार करिए हैं,
जा करि सुख उपजै वा दुःखविनसैतिस कार्यका नाम प्रयोजन है। बहुरि तिस प्रयोजनकी जाकरि सिद्धि होय सो ही अपना इष्ट है। सो हमारे इस अवसरविषै वीतरागविशेष ज्ञानका होना सो ही प्रयोजन है जाते याकरि निराकुल सांचे सुखकी प्राप्ति हो है। अर सर्व