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________________ 000000000000 मोजो निरूपण किया होय, ताों तो सत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान अङ्गीकार करना अर व्यवहारप्रकाशं नयकरि जो निरूपण किया होय, ताकौं असत्यार्थ मानि ताका श्रद्धान छोड़ना। सो ही || । समयसारविषै कह्या है सर्वत्राध्यवसायमेवमखिलं त्याज्यं यदुक्तं जिनै-~स्तन्मन्ये व्यवहार एव निखिलोऽप्यन्याश्रयस्त्याजितः । सम्यग्निश्चयमेकमेव परमं निष्कम्प्यमाक्रम्य किं शुद्धज्ञानघने महिम्नि न निजे बध्नन्ति सन्तो धृतिम् ॥१॥ याका अर्थ-जाते सर्व ही हिंसादि वा अहिंसादिविषै अध्यवसाय हैं सो समस्त ही छोड़ना, ऐसा जिनदेवनिकरि कह्या है । तातै' में ऐसें मानौ हौं, जो पराश्रित व्यवहार है, सो।। सर्व ही छुड़ाया है । सन्तपुरुष एक निश्चयहीकों भलै प्रकार निश्चयपनै अंगीकारकरि शुद्धज्ञानघनरूप निजमहिमावि स्थिति क्यों न करें हैं। भावार्थ-यहां व्यवहारका तौ त्याग कराया, तातै निश्चयकौं अङ्गीकारकरि निजमहिमारूप प्रवर्तना युक्त है । बहुरि षट्पाहुविर्षे कह्या है-- . जो सुत्तो ववहारे सो जोई जागदे सकज्जम्मि। जो जागादि ववहारे सो सुत्तो अप्पणे कज्जे ॥१॥ ३८१ *643600Comorrogcocococc0000-00-004600206000000000*goo-c1000%ackropde Eco-go-000019Coometookcetoorprookaacooperaokacokacao-000000000
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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