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________________ मो.मा. प्रकाश विचार न करना । जैसे धर्ममार्ग सांचा है, सैसे प्रवर्तना योग्य है। बहुरि कोई आज्ञा अनुसारि जैनी हैं । जैसे शास्त्रविष आज्ञा है, तैसें माने हैं । परन्तु आज्ञाकी परीक्षा करें नाहीं।। सो आज्ञा ही मानना धर्म होय, तो सर्व मतवारे अपने २ शास्त्रकी आज्ञामानि धर्मात्मा होइ।। ताते परीक्षाकरि जिनवचनको सत्यपनो पहिचानि जिन आज्ञा माननी योग्य है। बिना परीक्षा किए सत्य असत्यका निर्णय कैसे होय । और बिना निर्णय किए जैसे अन्यमती अपने २ || शास्त्रनिकी आज्ञा माने हैं, तैसे याने जैनशास्त्रकी आज्ञा मानी। यह तो पक्षकरि आज्ञा मानना है । कोउ कहै-शास्त्रविर्षे दश प्रकार सम्यक्त्वविषै आज्ञासम्यक्त्व कह्या है, वा आज्ञाविचयधर्मध्यानका भेद कह्या है, वा निःशंकितअंगविषै जिनवचनविषै संशय करना निषेच्या है, सो कैसे है । ताका समाधान शास्त्रविषे केई कथन तो ऐसे हैं, जिनका प्रत्यक्ष अनुमान करि सकिए है। बहुरि । केई कथन ऐसे हैं, जो प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर नाहीं । सातै आज्ञाहीकरि प्रमाण होय है। तहां नाना शास्त्रनिविषै जो कथन समान होय, तिनको तो परीक्षा करनेका प्रयोजन ही नाही। बहुरि जो कथन परस्परविरुद्ध होइ, तिनिविषै जो कथन प्रत्यक्ष अनुमानादिगोचर होय, तिनकी तो परीक्षा करनी । तहां जिन शास्त्रके कथनकी प्रमाणता ठहरे, तिनि शास्त्रविषै जो प्रत्यक्ष अनुमानगोचर नाहीं, ऐसे कथन किए होंय, तिनकी भी प्रमाणता करनी । बहुरि जिन | 0 0000000000000000000000000000000000000000Morar fo00003200000mlackool0000000 ३२७
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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