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________________ पो.मा. प्रकाश कुलक्रम कैसे रह्या । जो कुल ऊपरि दृष्टि होय, तौ पुत्र भी नरकगामी होय । तातै धर्मविष किछू कुलकमका प्रयोजन नाहीं । शास्त्रनिका अर्थ विचारि जो कालदोषते जिनधर्मविषे भी पापी पुरुषनिकर कुदेव कुगुरु कुधर्म सेवनादिरूप वा विषयकषायपोषणादिरूप विपरीत प्रवृत्ति चलाई होइ, ताका त्याग करि जिनयाज्ञा अनुसारि प्रवर्तना योग्य है । इहां कोऊ क परंपरा छोड़ि नवीन मार्गविषै प्रवर्तना योग्य नाहीं । ताकौं कहिए है— जो अपनी बुद्धिकर नवीन मार्ग प्रवर्त्ते, तो थुक्त नाहीं । जो परंपरा अनादिनिधन जैनधर्मका स्वरूप शास्त्रनि विषै लिख्या है, ताकी प्रवृत्ति मेटि पापीपुरुषां अन्यथा प्रवृत्ति चलाई, तो ताक परंपरायमार्ग कैसे कहिए। बहुरि ताक छोड़ि पुरातन जैनशास्त्रनिविषै जैसा धर्म विख्या था, तैसे प्रवर्ते, तो ताकों नवीन मार्ग कैसें कहिए । बहुरि जो कुलविषै जैसे जिनदेवकी आज्ञा है, तैसें ही धर्मकी प्रवृत्ति है, तो आपको भी तैसें ही प्रवर्तना योग्य है । परंतु ताका कुलाचरण जानना, धर्म जानि ताके स्वरूप फलादिकका निश्चय करि अंगीकार करनाः । जो सांचा भी धर्मको कुलाचार जनि प्रवर्ते है, तौ तांकों धर्मात्मा न कहिए । जातै सर्व कुलके उस आचरणको छोड़ें, तो आप भी छोड़ि दे । बहुरि जो वह आचरण करे है, सो कुल का भयकरि करे है । किछु धर्मबुद्धि तैं माहीं करै है । तातैं वह धर्मात्मा नाहीं । ऐसे विवा - हादि कुलसम्बन्धी कार्यनिविषे तो कुलक्रमका विचार करना और धर्मसम्बन्धी कार्यविषै कुलका ३२६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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