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________________ मो.मा. नादिगोचर नाही, सुक्ष्मपर्ने ते जिनका निर्णय न होइ सके, तिनकी अपेक्षा यह कथन है। प्रकाश ।। मूलभूत देव गुरु धर्मादि वा तत्वादिकका अन्यथा श्रद्धान भए, तो सर्वथा सम्यक्त्व रहै नाही, यहु निश्चय करना । तातें बिना परीक्षा किएँ केवल आज्ञाहीकरि जैनी हैं, ते भी मिथ्यादृष्टी जानने । बहुरि केई परीक्षा भी करि जेनी होय हैं, परंतु मूल परीक्षा नाहीं करें हैं। दया शील तप संयमादि क्रियानिकरि वा पूजा प्रभावनादि कार्यनिकरि वा अतिशय चमत्कारादिकरि वा जिनधर्मते इष्ट प्राप्ति होनेकरि जिनमतकों उत्तम जानि प्रीतवंत होय जैनी होय हैं। अन्यमतविर्षे हुए कार्य तो होय हैं, सातें इन लक्षणनिविष प्रतिव्याप्ति पाइए है। कोऊ कहै-जैसे जिनधर्मविषे ए कार्य हैं, तैसें अन्यमतविर्षे न पाइए हैं। ताते प्रतिव्याप्ति नाहीं। ताका समाधान यह तो सत्य है, ऐसें ही है। परंतु जैसे तू दयादिक माने है तैसें तो वे भी निरूपै हैं। परजीवनिकी रक्षाकों दया तू कहै; सोही वे कहे हैं। ऐसे ही अन्य जानने।। ___बहुरि वह कहे है उनके ठीक नाहीं । कबहूँ दया प्ररूमैं कबहूं हिंसा प्ररूपें । ताका. उत्तर-तहां दयादिकका अंशमात्र तो आया । ताते प्रतिव्याप्तिपना इनि लक्षणनिकरि पान इए है । इनिकरि सांची परीक्षा होय नाहीं। तो कैरों होय । जिनधर्मविषै सम्बन्द नचारित्र मोक्षमार्ग कह्या है । सही सांचे देवादिकका वा जीवादिकका श्रद्धान किए सम्यक्त्व होय, ovoccoo-8000%20oopicrocorr10000000000000ral r सरलg | ३३१
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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