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________________ SMore मो:मा. वा तिनिकौं जाने सम्यग्ज्ञान होइ, वा सांचा रागादिक मिटै सम्यक्चारित्र होइ, सो इनिका प्रकाश वरूप जैसे जिनमतविषै निरूपण किया है, तैसें कहीं निरूपण किया नाहीं। वा जैनीविना अन्यमती ऐसा कार्य करि सकते नाहीं । तातै यहु जिनमतका सांचा लना है। इस लक्ष- | Nणको पहचानि जे परीक्षा करें, तेई श्रद्धानी हैं । इस विना अन्य प्रकारकरि परीक्षा करै हैं, ते । मिथ्यादृष्टी ही रहै हैं। बहुरि केई संगतिकरि जैनधर्म धारे हैं। कोई महान् पुरुषको जिनधर्मविषै प्रवर्तता देखि | आप भी प्रवत्र्ते हैं । केई देखा देखी जिनधर्मकी शुद्ध वा अशुद्ध क्रियानिविषै प्रवत्र्ते हैं । इत्यादि अनेकप्रकारके जीव आप विचारकरि जिनधर्मका रहस्य नाही पहिचानै हैं अर जैनी । नाम धरावै हैं, ते सर्व मिथ्यादृष्टी ही जानने । इतना तौ है, जिनमतविषै पापकी प्रवृत्ति विशेष नाहीं होय सके है अर पुण्यके निमित्त घने हैं । अर सांचा मोक्षमार्गके भी कारण तहां बनि । रहे हैं। तात जे कुलादिकरि भी जैनी हैं, ते भी औरनितें तो भले ही हैं। बहुरि जे जीव कपटकरि आजीवकाके अर्थि वा बड़ाईके अर्थि वा किछु विषकषायसम्बन्धी प्रयोजनविचार । जैनी हो हैं, ते पापी ही हैं । अति तीवकषाय भए ऐसी बुद्धि आवै है । उनका सुलझना भी कठिन है । जैनधर्म तो संसारका नोशिके अर्थि सेवै है । ताकरि जो संसारके प्रयोजन साध्या |चाहै, सो बड़ा अन्याय करें है । ताते ते तो मिथ्यादृष्टि हैं ही। a to9000-8000012040072 2019MROPERIODog meenames fotoOMORROOOGY00130fooccorticookiskool
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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