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________________ 4800 मो.मा. प्रकाश .. इहां कोऊ कहै-हिंसादिककरि जिन कार्यनिकों करिए, ते कार्य धर्मसाधनकरि सिद्ध २९ का कीजिए, तो बुरा कहा भया । दोऊ प्रयोजन सधै ताकौं कहिए है-पापकार्य अर धर्मकार्य का एक साधन किए पाप.ही होय। जैसे कोऊ धर्मका साधन चैत्यालय बनाय, निसहीको । स्त्रीसेवनादि पापनिका भी साधन कर, तो पाप ही होइ । हिंसादिककरि भोगादिकके अर्थि जुदा मंदिर बनावै, तो बनावौ.। परन्तु चैत्यालयविषै भोगादि करना युक्त नाहीं। तैसें धर्मका साधन पूजा शास्त्रादि कार्य हैं, तिनिहीकों आजीविका आदि पापका भी साधन करे, तो पापी ही होय । हिंसादिकरि आजीविकादिकके अर्थि व्यापारादि करे, तो करौ । परन्तु पूजादि कार्यनिविषै तो आजीविका आदिका प्रयोजन विचारना युक्त नाहीं । इहां प्रश्न-जो ऐसे है तो मुनि भी धर्मसाधि परघर भोजन करें हैं वा साधर्मी साधर्मीका उपकार करें करावें हैं, सो कैसे बने । ताका उत्तर जो आप किछु आजीविका आदिका प्रयोजन विचारि धर्म नाहीं साधै है, आपकौं धर्मास्मा जानि केई स्वयमेव भोजन उपकारादि करै है, तो किछु दोष है नाहीं। बहुरि जो आपही भोजनादिकका प्रयोजन विचारि धर्म साधे है, तो पापी है ही। जे विरागी होय मुनिपनो अंगीकार करें हैं, तिनिकै भोजनादिकका प्रयोजन नाहीं। शरीरकी स्थितिके अर्थि स्वयमेव भोजनादिक कोई दे तो लें, नाही तो समता राखें। संकलेशरूप होय नाहीं । बहरि आप हितकै ३३३ । 0 01560100030030No3cootac00706003cook-00-00000-00-00-00-00-3300500000000000000 ITSmatammacamwasnaxemaanm uneSATE
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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