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________________ प्रकाश मोमा. करि आज्ञा माने ही सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय है । लोकवि भी कोई प्रकार परीक्षा किए। ही पुरुषकी प्रतीति कीजिए है । बहुरि तें कह्या-जिनवचनविष संशय करनेते सम्यक्त्वको शंका नाम दोष होय; सो 'न नानिए यह कैसे हैं' ऐसा मानि निर्णय न कीजिए तो तहां |शंका नाम दोष होय । बहुरि जहां निर्णय करनेको विचार करते ही सम्यक्त्वको दोष लागै, तो अष्टसहस्रीविषै आज्ञाप्रधानतें परीक्षाप्रधानको उत्तम काहेकौं कह्या । पृच्छना आदि खा। ध्यायके अंग कैसे कहे । प्रमाण नयतें पदार्थनिका निर्णय करनेका उपदेश काहेकौं दिया । ताते परीक्षाकरि आज्ञा मानवी योग्य है । बहुरि केई पापी पुरुषां अपना कल्पित कथन किया है पर तिनकों जिनवचन ठहरांवे हैं, तिमकों जैनमतका शास्त्र नानि प्रमाण न करना। तहां भी प्रमाणादिकतें परीक्षाकरि वा परस्पर शास्त्रनते विधि मिलाय वो ऐसे संभव है कि नाही, II ऐसा विचारकरि विरुद्ध अर्थको मिथ्या ही जानना । जैसे ठिग आप पत्र लिखि तामें लिख-|| | नवारेका नाम किसी साहूकारका धस्था, नामके भ्रमते धनको ठिगावे, तौ दरिद्री ही होय ।।। तैसें पापी आप ग्रंथादि बनाय, तहां कर्ताका नाम जिन गणधर आचार्यनिका धरया, तिस नामके भ्रमते झंठा श्रद्धान करै, तो मिथ्यादृष्टी ही होय । वहुरि यह कहै है-गोम्मरसार विषै ऐसा कहा है-सम्यग्दृष्टी जीव अज्ञानगुरुकै निमित्ततै झूठा भी श्रद्धान करे, तो माज्ञा माननेते सम्यग्दृष्टी होय है । सो यह कथन कैसे किया है । ताका उत्तर-जो प्रत्यक्ष अनुमा-11 Haorojiofooja6/0GOctoOTOSoorageofoo03800-1000rporate मन 1३३०
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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