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________________ मो.मा. 1000000 जनभूत देवादिक खरूप अन्यथा न कह्या, तिनिविर्षे प्रयोजन रहित द्वीप समुद्रादिकका । प्रकाश कथन अन्यथा कैसे होगा। जाते देवादिकका कथन अन्यथा किए वक्ताके विषय कषाय | पोखे जांय हैं । इहां प्रश्न-जो देवादिकका कथन तो अन्यथा विषयकषायतें किया, तिनही शास्त्रनिविषै अन्य कथन अन्यथा काहेकौं किया। ताका समाधान ___ जो एक ही कथन अन्यथा कहै, वाका अन्यथापना शीघ्र ही प्रगट होय जाइ। जुदी। पद्धती ठहरै नाहीं । तातै घने कथन अन्यथा करनेते जुर्दा पद्धति ठहरे। तहां तुच्छबुद्धी । भ्रममें पडिजाय-यह भी मत है । तातै प्रयोजनभूतका अन्यथापनाका भेलनेके अर्थि अप्र। योजनभूत भी अन्यथा कथन घने किए। बहुरि प्रतीति अनावनेके अर्थि कोई २ सांचा भी । कथन किया। परंतु स्यामा होय, सो भ्रममें परै माहीं। प्रयोजनभूत कथनकी परीक्षाकरि जहां सांच भासे, तिस मतकी सर्व आज्ञा माने, सो परीक्षा किए जैनमत ही सांचा भाले है। जाते याका वक्ता सर्वज्ञ वीतराग है, सो झूठा काहेकौं कहै । ऐसें जिन शाज्ञा माने, सो । । सांचा श्रद्धान होइ, ताका नाम आज्ञासम्यक्त्व है । बहुरि जहां एकाग्र चिन्तवन होय, ताका || नाम आज्ञाविचय धर्मध्यान हैं। जो ऐसे न मानिए शर विना परीक्षा किए आज्ञा माने । सम्यक्त्व वा धर्मध्यान होय जाय, तो द्रव्यलिंगी आशा मानि मुनि भया, श्राज्ञाअनुसार साधनकरि प्रवेयिक पर्यंत प्राप्त होय, ताकै मिथ्याटष्टिपना कैसे रह्या । ताते किछु परीक्षा- ३२६ 1000000000000 వందనం
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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