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बारणतरण
श्लोक-असत्त्ये अशाश्वते रागं, उत्साहेन रतो सदा । ॥१५॥
शरीरे रागवर्धन्ते, ते तु दुर्गतिभाजनं ॥ १४४ ॥ अन्वयार्थ (असत्त्ये) मिथ्या (अशाश्वते) व अनित्य पदार्थ में (राग) राग करना व ( उत्साहेन) उत्साहके साथ (सदा) निरंतर (रतो) उनमें रति करना (शरीरे ) शरीरमें (राग) मोहको ( वर्धन्ते ) बढा देते हैं । (ते तु) जो ऐसे मोही हैं वे (दुर्गतिभाजनं ) अशुभ गतिके भागी होते हैं।
विशेषार्थ-जगतकी सर्व रचना जो बनती है व बिगडती है वह सब मिथ्या है व नाशवंत है 7 जैसे क्षण क्षणमें समय बीतता जाता है ऐसे ही सर्व अवस्थाएं क्षण क्षणमें बदलती रहती हैं । इन
अवस्थाओं में राग करना व इनके बने रहने में उत्साह रखना व रंजायमान होते रहना, प्राणीको शरीरका अतिशय मोही बना देता है, वह आत्माको बिलकुल भूलकर अपनेको शरीर रूप ही माना
करता है। मैं नृप हूँ, मैं सेठ हूँ, मैं बलवान हूँ, मैं विद्वान हूँ, मैं तपस्वी हूँ, मैं सुन्दर हूँ, मैं बडे Vवंशका हूँ इत्यादि शरीरकी मू में मूर्छित होता हुआ तीव्र कर्म बांधकर दुर्गतिमें चला जाता है।
सुभाषितरत्नसंदोहमें कहते हैंगलत्यायुदेहे व्रति विलयं रूपमखिलं । जरा प्रत्यासन्नीभवति लभते व्याविरुदयम् ।। कुटुम्बः स्नेहातः प्रतिहतमतिर्लोभकलितो । मनो जन्मोच्छित्त्यै तदीप कुरुते नायमसुमान् ॥ ३३३ ॥ भवन्त्येता लक्ष्म्यः कतिपयदिनान्येव सुखदास्तरुण्यः तारुण्ये विदधति मनः प्रीतिमतुलाम् ॥ तडिल्लोला भोगा वपुरपि चलं व्याधिकलितं । बुधाः संचिंत्येति प्रगुणमनसो ब्रह्मणिरताः ॥ १३॥
भावार्थ-यह आयु गलती जाती है, वह सब रूप विलय होता जाता है। जरा निकट आती जाती है। रोगोंका उदय होता रहता है । कुटुम्ब स्नेहमें फंसा हुआ लोभसे जकडा रहता है । तो भी निर्बुद्धि प्राणी इस मिथ्या व नाशवंत संसारके नाशके लिये कुछ नहीं करता है। ये धन-संपदा कुछ दिनके लिये सुखदाई भासती है, युवती स्त्रियां यवानीमें ही गाढ प्रीतिको विस्तारती है। भोग विजलीके चमत्कारके समान चंचल है। यह शरीर रोगोंसे भरा चलायमान है। गुणवान पंडितजन ऐसा विचार करके अपने शुद्ध आत्मस्वभावमें रमण करते हैं। वास्तव में इन सांसारिक पदार्थोके लिये मान व मूर्छा करना मात्र अज्ञानता है।