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श्लोक-जाति कुली सुर रूपं, अधिकार तपः बलं । वारणतरण
शिलीज्ञानं आरूढं, मदष्टं संसार भाजनं ॥ १४५ ॥ ॥१५॥
अन्वयार्थ-(जाति) माताकी पक्षका ( कुल ) पिताकी पक्षका (ईसुर ) धनके स्वामित्वका (रूप) सुन्दर रूपका ( अधिकार) अधिकार व आज्ञा चलनेका (तपः) तप करनेका (बलं) शरीरके बल का
(शिल्पाज्ञानं ) शिल्पादि विद्याओंके ज्ञानका (आरूढं ) अभिमान करना ( मदष्ट ) ये आठ मद ( संसारॐ भाजन ) संसारके भाजन हैं।
विशेषार्थ-यहां आठ मदोंके नाम गिनाए हैं। सम्यग्दृष्टी इन मदोंको नहीं करता है। मिथ्यादृष्टी जगतके मोही जीवके भीतर ये आठ मद अपना घर कर लेते हैं। यह मानव मानके पर्वतपर चढा हुआ दूसरों को अपनेसे तुच्छ देखता है । इन आठ मदोंका स्वरूप इस भांति है
(१) जातिमद-शरीरको जन्म देनेवाली माता होती है। इससे माताकी पक्षको जाति कहते ४ हैं। जिसकी योनिमें जन्म हो वह माता है। उसके कुटुम्बीजनों में यह मान करना कि हमारे मामा, नाना, ऐसे २ हैं। उनके धनादि बलको होते हुए उनको अपना मानकर अहंकार करना जातिमद है।
(१) कुल मद-जिसके वीर्यसे पैदा होता है उसको कुल या वंश कहते हैं। अपने पिता, पितामह, पर पितामह आदिकी सम्पदा आदिका विचार कर उसके बलपर अपना बल मान अहंकार करना सो कुलमद है।
(३) ऐश्वर्य मद-धन सम्पदा-माल मकान, खेती, गहना, सोना, चांदी आदि पास होते हुए Vउनका मैं स्वामी हूं, अतएव मैं धनिक हूं, मैं सुखी हूं, ऐसा मान निधनाको तुच्छ दृष्टिसे देखता हुआ अहंकार करना सो धनमद है।
(४ रूप मद-शरीरका आकार सुन्दर सुहावना-आंख, नाक, कान, मुंह, शरीरका रंग शुभ ४ होते हुए अपनेको रूपवान, दूसरोंको सुन्दरता हीन समझकर अपने शरीरके रूपका अहंकार करना रूप मद है।
(५) अधिकार मद-प्रभुताई, बडप्पन, हुकूमत चलते हुए यह मानना कि मैं जो चाहे सो कर सका हूं चाहे जिसे झूठा दोष लगाकर भी दंडित कर सकता हूं। कोई साधारण भी अपमान
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