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वारणतरण
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करे या दोष करे तो अपने अधिकारसे खूब कठोर दण्ड देसका हूं। मेरा कोई क्या बिगाड कर सक्ता है ऐसा अहंकार करना सो अधिकार मद है ।
(३) तप मद - और मनुष्योंसे न बन सके ऐसा तप, उपवास, रस त्याग, ऊनोदर, कठिन प्रतिज्ञा लेकर आहारको जाना, न मिलनेपर फिर उपवास कर जाना, पर्वत, शिवर, वन, नदीतट, स्मशानभूमि आदि विषम स्थानों पर जाकर तप करना । भूख प्यास, डांस, मच्छर, गाली आदि परीषहोंका सहना, इत्यादि नानाप्रकार साधु या श्रावकको अवस्था में रहते हुए तप साधना, परंतु मनमें यह अहंकार कर लेना कि मैं बडा तपस्वी हूं-मेरे समान तप किसीसे नहीं बन सक्ता है । यदि कोई प्रतिष्ठा व विनय में कमी करे तो मानवश क्रोध भाव रखना ये सब तपका मद है ।
(७) बल मद - शरीर में व्यायामादि करने से औरोंसे अधिक बल होनेपर निर्बलों को तुच्छ दृष्टिसे देखना, अपने बलसे निर्बलों को सताना, निःशंक हो उनका बिगाड करना और यह अहंकार करना कि कोई मेरा क्या कर सक्ता है मेरा सामना कोई नहीं कर सका है, ऐसा मानके रहना सो मद है ।
(८) शिल्पज्ञान या विद्या मद-अपनेको चित्रकारी, बड़ाईका काम, लोहारका काम, यंत्रविद्या, वस्त्रों पर बेलबुटे निकालना, कवि कला, न्याय, व्याकरण, छन्द, अलंकार, तैरना, बजाना, गाना, धर्म शास्त्रका सूक्ष्म ज्ञान आदि अनेक प्रकार लौकिक और पारलौकिक विद्याओंका स्वामीपना होनेपर अपने से औरोंको मूर्ख गिनना, किंचित् अपमान से क्रोधित होजाना, अपनी पूजा प्रतिष्ठा चाहना, मेरे सामने कोई आ नहीं सक्ता है, मैं सबको कला चतुराईमें परास्त कर सक्ता हूँ ऐसा अहंकार रखके मानके नशे में चूर रहना ज्ञानमद या विद्यामद है । जो शरीर, भोग व संसारका मोही है वही मूर्छावान अज्ञानी प्राणी उन क्षणिक वस्तुओंको अपनी मानके मद करता है-ज्ञानी नहीं करता है । सुभाषितरत्न संदोह में कहते हैं
गर्वेण मातृपितृबान्धवमित्रवर्गाः । सर्वे भवन्ति विमुखा विहितेन पुंसः ॥ अन्योऽपि तस्य तनुते न जनोऽनुरागं । मत्वेति मानमपहस्तयते सुबुद्धिः ॥ ४९ ॥
WADAY
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