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तारणतरण 1128011
ही जाना न चाहिये, उनकी संगति न करनी चाहिये। संगतिका भी बड़ा असर होता है । सचे साधुओंकी संगति मंगलकारी है, आत्मोन्नति के मार्ग में प्रेरित करनेवाली है तब स्वयं आत्मज्ञानशून्य इंद्रिय सुखके लोलुपी साधुओंकी संगति संसारके ही मार्गको दृढता करानेवाली है व इस मानव जन्मको निरर्थक व पापका भार बनानेवाली है अतएव खोटे साधु के संग से बचना ही श्रेष्ठ है । श्लोक – पाखंडि कुमति अज्ञानी, कुलिंगी जिन लोपनं ।
जिन लिंगी मिश्रेण यः, जिनद्रोही ज्ञानलोपनं ॥ २४७ ॥
अन्वयार्थ —–( पाखंडी ) पाखंडी साधु ( कुमति अज्ञानी ) कुमति व कुश्रुतका धारी है ( कुलिंगी) मिथ्या भेषी है (जिन लोपनं ) जिनके स्वरूपको लोपनेवाला है (यः) जो ( जिन लिंगी मिश्रेण ) जिन लिंगी के साथ अपनेको मिलाके अर्थात् जिन लिंगी दिखाके (जिनद्रोही) जिन भगवानका द्रोही होता हुआ (ज्ञानलोपनं सम्यग्ज्ञानको छिपानेवाला है ।
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श्रावस्यष्णर
विशेषार्थं - यहांपर यह दिखलाया है कि जो जिन भेषी नहीं हैं अर्थात् परिग्रह धारी साधु हैं उनके कुमति कुश्रुत ज्ञान होता ही है । वे तो जिनेन्द्र भगवानके मतको लोपनेवाले हैं ही परन्तु जो अपनेको जिन भेषी सरीखा मानते हैं, परिग्रह कुछ रख करके भी अपनेको जैन साधु मानते हैं। या परिग्रह त्याग नग्न होकरके भी अपनेको जैन साधु मानते हैं परंतु जिनेन्द्रकी आज्ञानुसार तत्वोंका न अनुभव करते हैं न यथार्थ तत्वोंका उपदेश करते हैं वे भी जिनद्रोही हैं । वे सम्यग्ज्ञानको लाभ करनेवाले हैं। कोई २ जैनका भेष धार करके भी तत्वज्ञान से शून्य होते हुए व किसी ख्याति पूजा लाभादिके हेतुसे मुनिका चारित्र पालते हुए मात्र भक्ति कराने में लीन हैं, गृहस्थोंको रुचे ऐसा ही उपदेश देनेवाले हैं । उनको व्यवहार पूजा पाठमें ही उलझाए रखते हैं, आध्यात्मिक ज्ञानकी तरफ नहीं जाते हैं किन्तु मना करते हैं कि आत्माकी कथनी गृहस्थको पढनी योग्य नहीं है । वे स्वयं भी आत्मानुभव करते हुए कषायका ही पोषण करते हैं और दूसरों को भी कषाय पोषणका मार्ग दिखाते हैं । निश्चय सम्यग्दर्शन के निधन से स्वयं भी दूर हैं और दूसरोंको भी दूर रखते हैं, ऐसे जिनभेषी साधु भी हितकारी नहीं हैं । वे जिन लिंगी बन करके भी श्री जिनेन्द्र के मार्गका लोप करनेवाले हैं, ऐसोंकी संगति भी हितकारी नहीं है ।
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॥२४७॥