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________________ मो.मा. प्रकाश सुनित तो द्रव्यलिंगीकों हीन कहो, असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टी याकों हीन कैसे कहि ए । ताका समाधान असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै कषायनिकों प्रवृत्ति तो है, परन्तु श्रद्धानविषै किसी ही कषायके करनेका अभिप्राय नाहीं । बहुरि द्र्ध्यलिंगीकै शुभकपतय करनेका अभिप्राय पाईए है | श्रद्धानविषै तिनकों भले जाने है । तातै' श्रद्धानअपेक्षा असंयत सम्यग्दृष्टीतैं भी याकै अधिक कषाय है । बहुरि द्रव्यलिंगीकै योगनिकी प्रवृत्ति शुभ्ररूप घनी हो है । अर अघातिकर्मनिविषे पुण्य पापबंधका विशेष शुभ अशुभ योगनिकै अनुसार है । तातै उपरिम ग्रैवेयकपर्यंत पहुंचे हैं, सो किछू कार्यकारी नाहीं । जातै श्रघातिया कर्म श्रात्मगुणके घातक ना ह्रीं । इनके उदयतें ऊंचे नीवेपद पाए तो कहा भया । ए तौ बाह्य संयोगमात्र संसारदश के स्वांग हैं। आप तो आत्मा है, तातै' श्रात्मगुणके घातक ए कर्म हैं तिनका हीनपना कार्यकारी है । सो घातिया कम्पनिका बंध बाह्य प्रवृत्ति के अनुसार नाहीं । अंतरंग कषायशक्तिकै अनुसार है । याही द्रव्यलिंगीत असंयत देशसंयत सम्यग्दृष्टिकै घातिकर्मनिका बंध थोरा है । द्रव्यलिंगीकै तौ सर्व घातिकर्मनिका बंध बहुत स्थिति अनुभाग लिए होय । अर असंत देश संयत सम्यग्दृष्टिकै मियाल अमंतानुबंधी आदि कर्मनिका तो बंध है ही नाहीं । अवशेषनिका बंध ह है, सो स्तोक स्थिति अनुभाग लिए हो है । बहुरि द्रव्यलिंगीकै कदाचित् ३७६
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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