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तारणतरण
श्रावकार
शुद्ध षट्कर्म संक्षेप। श्लोक-ये षटकर्म शुद्धं च, जे साधंति सदा बुधैः ।
___ मुक्ति मार्ग ध्रुवं शुद्धं, धर्मध्यानरतो सदा ॥ ३७५ ॥ अन्वयार्थ-(सदा बुधैः) सदा ही बुद्धिमानोंको उचित है कि (ये षट् कर्म शुद्धं च साधन्ति) इन छ: कौंको शुद्धताके साथ साधन करें (ने मुक्तिमार्ग ध्रुवं शुद्ध) वे निश्चल शुद्ध मोक्षमार्गपर चलनेवाले हैं (धर्मध्यानरतो सदा) वे सदा ही धर्मध्यानमें लवलीन हैं।
विशेषार्थ-सम्यग्दर्शन या दृढ श्रद्धा पूर्वक देव पूजादि छहों कमाको व्यवहार व निश्चय दोनों नयोंके द्वारा जानकर सेवन करना चाहिये। श्री जिनेन्द्र देवकी पूजा करना व्यवहार देवपूजा है। उनके शुरु आत्मीक गुणोंके समान अपने आत्मीक गुणोंका अनुभव करना निश्चय देव पूजा है। श्री निर्मथ गुरुकी भक्ति करना, उनसे धर्मोपदेश लेना व्यवहार गुरुभक्ति है। उनकी संगतिसे अपने शुद्ध आत्माका साधन करना निश्चय गुरुभक्ति है। शास्त्रोंको पढकर ज्ञान प्राप्त करना व्यवहार स्वाध्याय है। तथा अपने आत्माके शुद्ध स्वभावका आराधन निश्चय स्वाध्याय है।
पांच इंद्रिय व मनका दमन व छ। कायके प्राणियोंकी रक्षाके हेतु यम नियमरूप संयम पालना व्यवहार संयम है। निश्चल शुद्धात्मामें रमण करना निश्चय संयम है। उपवास आदि बारह प्रकार तपका, शक्तिके अनुसार आराधन करना व्यवहार तप है। अपने ही शुद्ध आत्मामें अपने आत्माको तपाना निश्चय तप है। पात्रोंको भक्तिपूर्वक व दु:खियोंको दयापूर्वक दान देना, व्यवहार दान है।
तथा अपने ही आत्माको अनुभव करके ज्ञानामृतका दान करना निश्चय दान है। ये छहों कर्म गृह* स्थोंको मोक्षमार्गमें परम सहाई हैं। इनको निरंतर पालते हुए धर्मध्यानमें तन्मय रहना योग्य है।
श्लोक-षट्कर्म च आराध्यं, अव्रतं श्रावकं ध्रुवं ।
संसार सरनि मुक्तस्य, मोक्षगामी न संशयः ॥ ३७६ ॥ अन्वयार्थ—(अव्रतं श्रावक) व्रत रहित श्रावकको (ध्रुवं) सदा (षट्कर्म च माराध्यं) देव पूजादि छहों
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