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________________ तारणतरण श्रावकाचार ३६ . रत्नत्रय स्वरूप अपनी आत्मा है। उसको स्वात्मानन्दामृतका दान देना परम शुद्ध दान है। व्यवहार दान यह है कि गृहस्थोंको नित्य प्रति पात्रोंका विचार करके भोजनके पहले दान करके भोजन करे। निरंतर पात्रदानकी भावना भावे । उत्तम पात्र मुनि, मध्यम पात्र श्रावक, जघन्य पात्र व्रत रहित अडावान । इन तीनोंमेंसे जिनका संयोग मिल सके उनको पात्रदान करके बड़ा हर्ष माने। नित्यका दान तो भोजनके पहले आहारदान है,सो पात्रोंको करके अपना जन्म सफल माने, अपना घर पवित्र माने । गृहस्थी श्रद्धावान पुरुष या स्त्रीको भी भक्तिपूर्वक निमंत्रण देकर दान करना धर्मका अंग है। जिसको भक्ति पूर्वक निमन्त्रण दिया जावे उसको भी धर्मकी प्रतिष्ठा करते हुए निमन्त्रण स्वीकार कर लेना चाहिये । हम दान क्यों लें ऐसा अभिमान नहीं रखना चाहिये । परस्पर श्रावक पश्राविका पात्र दान कर सक्ते हैं, इससे धर्मकी वृद्धि होती है, धर्मप्रेम बढ़ता है। यदि भोजनके पहले किसी पात्रका लाभ न होवै तौ दु:खित, बुभुक्षित, दयापात्र, किसीको भी दान देकर भोजन करे, यदि न मिले तो उसके लिये निकाल दे। कमसे कम हरएक जीमनेवालेको भोजन से पहले रोटी आधी रोटी अलग निकालके भोजन करना चाहिये। वह निकली रोटी किसी मानव या पशुको दी जासती है। इसके सिवाय गृहस्थीको अपनी कमाई.हे चौथाई, छठा, आठवांव कमसे कम दशा भाग निकालना चाहिये । उसे आहार, औषधि, अभय व विद्यादान में खर्च करना चाहिये । जैन श्रावक श्राविकाओंको औषधिका प्रबन्ध कर देना । गरीब कुटुम्बाको अन्नादिकी सहाय करना। अनाथ विधवा आदिकी पालना करनी, शास्त्रोंका प्रकाश करना, शास्त्र व पुस्तकें बांटना, विद्यालय खोलना, छात्रोंको वृत्तियें देना आदि जो चार दानके कार्य जैनधर्मके धारी जैन समाजके लिये किये जायगे ये सब पात्रदानमें आजायगे। करूणाभाव करके जगतमात्रके मानव व पशुओंको अन्नादि देना, उनकी औषधि करना, उनके प्राणों को बचाना, सर्व मानवों में विद्याका प्रचार करना, यह करु • णादान है। गृहस्थको उचित है कि निरंतर पात्रदान व करुणादान दोनों प्रकारका दान भावपूर्वक करै। दानसे ही गृहस्थकी शोभा है। दान करते हुए कभी आकुलित नहीं होना चाहिये। जितना धन दानमें निकल जाय वह बो दिया गया है ऐसा समझना चाहिये । दानी गृहस्थ उदार-चित्त होते हैं। कषाय मंद रहती है जिससे निरन्तर पुण्य बांधते व असाताके कारणोंसे बचनेका साधन करते हैं।
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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