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________________ मो.मा. प्रकाश आप न चाहे तैसें ही होते देखिए है । तातैं यह निश्चय है अपना किया काहूका सद्भाव अभाव | होता नाहीं । कषायभाव करने कहा होय ? केवल आप ही दुखी होय । जैसें कोऊ विवाहादि कार्यविषै जाका किछू कह्या न होय अर वह आप कर्त्ता होय कषाय करै तौ आपही दुखी होय तैसें जानना । तातै कषायभाव करना ऐसा है जैसा जलका बिलोवना किछु कार्यकारी नाहीं । तैं इनि कषायनिकी प्रवृत्तिकों मिथ्याचारित्र कहिए है । जातें कोई पदार्थ इष्ट अनिष्ट है नाहीं । कैसें सो कहिए है आपकों दुखदायक अनुपकारी होय ताक अनिष्ट कहिए । सो लोकमें सर्व पदार्थ अपने २ स्वभावके कर्त्ता हैं कोऊ काहूकों सुखदायक दुखदायक उपकारी अनुपकारी है नाहीं । | यह जीव अपने परिणामनिविषै तिनिकों सुखदायक उपकारी जानि इष्ट जाने अथवा दुखदायक | अनुपकारी जानि अनिष्ट माने है । जातै एक ही पदार्थ काहूकों, इष्ट लागे है कहूक अनिष्ट लागे है । जैसें जाकौं वस्त्र न मिलै ताकौं मोटा वस्त्र इष्ट लागै अर जाकौं महीन वस्त्र मिलै ताक अनिष्ट लागे हैं । सूकरादिककौं विष्ठा इष्ट लागे है । देवादिककों अनिष्ट लागे है । काहूकों मेघवर्षा इष्ट लागे है काहूकों अनिष्ट लागे है । ऐसें ही अन्य जनिने । बहुरि याही प्रकार एक जीवकों भी एक ही पदार्थ काहूकालविषै इष्ट लागे है काहूकालविषै अनिष्ट लागे है | बहु यह जीव जाक मुख्यपने इष्ट माने सो भी अनिष्ट होता देखिए है । इत्यादि जानने । जैसे १३३
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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