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बारणतरण मालूम होती है जिस घड़ेमें ढककर बहुत दिनों तक रख छोडते हैं। मधुके अतीचारोंको बचानेके
श्रावकार ॥२३४॥
लिये फूलोंको नहीं खाना चाहिये ऐसा सागारधर्मामृतमें कहा है, क्योंकि वहींसे रस मक्खियां ले आती हैं।
श्लोक-सन्मूर्छनं यथा जानते, साकं पुहवादि पत्रयं ।
त्यक्तंते न च भुक्तं च, व्यापारं न च क्रियते ॥ २३३ ॥ कंदं बीयं यथा नेयं, सम्मूर्छनं विदलस्तथा ।
व्यापारं न च भुक्तं च, मूलगुणं प्रतिपालए ॥ २३४ ॥ मन्वयार्थ—(सम्मुर्छनं यथा) सम्मूर्छनके बराबर (साकं पुहवादि पत्रयं जानते) शाक, पुष्प आदि पत्रों को जानना चाहिये (त्यक्तंते न च भुक्तं च) इनका भी भोजन त्यागना चाहिये ( व्यापार न च क्रियते) V और न इनका व्यापार करना चाहिये । (यथा सम्मूर्छनं विदलः ) जैसे सम्मूर्छन विदल है (तथा कंद वीनं । ॐ नेयं) तैसे कंद मूलको जानना चाहिये (व्यापारं न च भुक्तं च ) इनको भी न खाना चाहिये न व्यापार करना चाहिये (मूलगुणं प्रतिपालए) तब आठ मूल गुण अतीचार रहित पाले जाते हैं।
विशेषार्थ-यहां ग्रंथकर्ता अतीचार रहित आठ मूलगुणोंको पालनेका उपदेश देरहे हैं जैसा कि दर्शनप्रतिमामें पालनेके लिये पंडित आशाधरजीने सागारधर्मामृतमें कहा है। * यद्यपि श्री समन्तभद्राचार्यने कंदमूल पुष्पादि खानेका त्याग भोगोपभोग परिमाणब्रतमें दूसरी
व्रत प्रतिमामें लिखा है तथापि यहां ग्रंथकर्ताने उनका त्याग निरतिचार आठ मूलगुण पालनेवालेके लिये भी बताया है। जैसे सडे बुसे पदार्थ में व द्विदलमें सन्मूर्छन त्रस जंतु उत्पन्न होते हैं, वैसे
शाक, फूल, पत्रों तथा कन्दमूल में साधारण अनन्तकायका दोष आता है जिससे अनन्त एकेंद्रिय ४जीवोंका घात होता है। अनन्त एकेंद्रिघोंका घात भी बहुतसे त्रस जन्तुओंके घातके बराबर है।
ऐसा जानकर दयावानोंको उनका त्याग ही करना उचित है। पत्रों व फूलोंमें, शाकमें बहुधा त्रस जंतुओं का भी आश्रय रहता है । जैसे गोभीके फूलमें-आलू, घुइया, शकरकंदी आदि जो जो कंद.१ मूल हैं जो जडके वहां फलरूप होते हैं उनमें साधारणका चिह बहुत अंशमें मिलता है वे सीधी ॥२४॥
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