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श्रावकाचार
टूट जाती है इसलिये इनको न खाना ही चाहिये और न इनका व्यापार ही करना चाहिये क्योंकि बारणतरण
व्यापारमें खिलानेका व अनुमोदना करनेका दोष अवश्य आता है। जिस वस्तुको हम अभक्ष्य ॥२३॥ समझते हैं उनको दृसरोंको भी खिलाना न चाहिये। रत्नकरण्ड श्रावकाचारमें भोगोपभोग परिमाण व्रतमें लिखा है
अल्पफळबहुविधातान्मूलकमाणि शृंगवेराणि । नवनीतनिम्बकुसुमं केतकमित्येवमबहेयम् ॥ ८५॥
भावार्थ-जिसमें फल तो अल्प हो मात्र कुछ जीभका स्वाद सधे और बहुतसे एकेंद्रिय ४. जीवोंकी हिंसा करनी पडे ऐसे मूली, गीले अदरक आदि व मक्खन व नीम व केतकीके फल आदि नहीं खाना चाहिये । पुरुषार्थसिद्ध्युपायमें भी भोगोपभोग परिमाणव्रतमें कहा है
एकमपि प्रनिघांसुः निहन्त्यनन्तान्यतस्ततोऽवश्यं । करणीयमशेषाणां परिहरणमनन्तकायानां ॥ १६॥
भावार्थ-जिस एक वनस्पतिके घात करनेसे अनन्त जीवोंकी कायोंका नाश होता हो उन सर्व अनन्तकायवाली वस्तुओंका त्याग करना योग्य है।
सागारधर्मामृतमें भी भोगोपभोग परिमाण व्रतमें नीचेके श्लोक दिये हैं
नालीसूरणकालिन्दद्रोणपुष्पादि वर्षयेत् । आनन्म तदभुना बस्पं फलं घातश्च मूढसां ॥१६॥ अनंतकायाः सर्वेपि सदा हेया दयापरैः । यदेकमपि तं हन्तुं प्रवृत्तो हन्त्यनन्तकान् ॥ १७॥
आमगोरससंयुक्तं द्विदलं प्रायशोऽनवं । वर्षास्वदलितं चात्र पत्रशाकं च नाहरेत् ॥ १८॥ भावार्थ-धर्मात्मा पुरुषोंको नाली (कमलकी डंडी), सूरण, कालिंद, द्रोणपुष्प, मूली, अदरक, नीमके फूल, केतकी आदि पदार्थीका मरण पर्यंत त्याग करना चाहिये । इनके खानेसे अल्पफल परंतु बहुत प्राणियोंकी हिंसा है। दयावानोंको अनंतकाय वनस्पतियों को सदा त्याग करना चाहिये। इसमें एकके खानेसे अनंतका घात होता है। जमीनके भीतर उत्पन्न होनेवाली मूली, गाजर आदि प्रायः अनंतकाय हैं। प्याज, सुरण आदि कंदज भी प्राय: अनंतकाय हैं। जैसे विदलको दहीके साथ नहीं खाना उचित है वैसे पुरानै अनाजको न खावे व वर्षामें विना दले मूंग चना आदि न
खावे व पत्तोंवाले शाक भी न खावे । दौलतरामजीने कहा है:* त्यागो कन्दमूल बुद्धिवन्त, कन्दमूहमें जीव अनन्त । फूल जाति सब ही दोषीक, जीव अनन्त भरे तहकीक ।
४ ॥२९॥