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मो.मा. हुरि निश्चयकरि वीतरागभाव मोक्षमार्ग है । ताकौं जे न पहिचानें, ताकों ऐसे ही कह्या कप्रकाश
रिए, तो वह समझे नाहीं । तब उनको व्यवहारनयकरि तत्वश्रद्धानज्ञानपूर्वक परद्रव्यका नि-11 मित्त मेटनेकी सापेक्षकारे व्रत शील संयमादिकरूप वीतरागभावके विशेष दिखाए, तब वाकै वीतरागभावकी पहचानि भई । याही प्रकार अन्यत्र भी व्यवहारविना निश्चयका उपदेशका न होना जानना । वहुरि यहां व्यवहारकरि नर नारकादिपर्यायहीकों जीव कह्या, सो पर्यायही कौं जीव न मानि लेना। पर्याय तो जीव पुद्गलका संयोगरूप है। तहां निश्चयकरि जीवद्रव्य जुदा है, ताहीकों जीव मानना । जीवका संयोग शरीरादिकौं भी उपचारकरि जीव कह्या, सो कहने मात्र ही है। परमार्थ ते शरीरादिक जीव होते नाहीं। ऐसा ही श्रद्धान करना। बहुरि अभेदआत्माविषै ज्ञानदर्शनादि भेद किए, सो तिनकों भेदरूप ही न मानि लेने। भेद
तो समझावनेके अर्थ हैं । निश्चयकरि आत्मा अभेद ही है । तिसहीकों जीववस्तु मानना । * संज्ञा संख्यादिकरि भेद कहे, सो कहने मात्र ही हैं । परमार्थतें जुदे जुदे हैं नाहीं । ऐसा ही
श्रद्धान करना । बहुरि परद्रव्यका निमित्त मेटनेकीअपेक्षा व्रत शील संयमादिकों मोक्षमार्ग कहा। | सो इनहीकों मोक्षमार्ग न मानि लेना । जातै परद्रव्यका ग्रहण त्याग आत्माकै होय, तौ - | त्मा परद्रव्यका कर्ता हर्ता होय । सो कोई द्रव्य कोई द्रब्यकै आधीन है नाहीं । तातें आत्मा | अपने भावरागादिक हैं, तिनों छोड़ि वीतराग हो है । सो निश्चयकरि वीतरागभाव ही मोक्ष
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