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________________ प्रकाश 00004 రాం రాం రాం मो.मा. ऐसा ही तर्क समयसारविषै किया है । तहां यह उसर दिया है जह णवि सकमणज्जो अमज्जभासं विणा उगाहेउँ । तह ववहारेण विणा परमत्थुवएसमसकं ॥१॥ । याका अर्थ-जैसे अनार्य जो म्लेछ सो ताहि म्लेछभाषा विना अर्थ ग्रहण करावनेकों।। । समर्थ न हूजे । तैसे व्यवहार विना परमार्थका उपदेश अशक्य है । तातै व्यवहारका उपदेश । है । बहुरि इसही सूत्रकी व्याख्याविषै ऐसा कह्या है—व्यवहारनयो नानुसतव्यः। यह निश् चयके अंगीकार करावनेकों व्यवहारकरि उपदेश दीजिए है । बहुरि व्यवहारनय है, सो अंगीकार करने योग्य नाहीं। यहां प्रश्न-व्यवहार विना निश्चयका उपदेश कैसे न होय । बहुरि । व्यवहारनय कैसे अंगीकार करना, सो कहो । ताका समाधान निश्चयनयकरि तौ आत्मा परद्रव्यतै भिन्न खभावनितें अभिन्न स्वयंसिद्ध वस्तु है ।। ताका जे न पहिचान, तिनकों ऐसे ही कह्या करिए तो वह समझ नाहीं। तब उनकौं व्यवहारनयकरि शरीरादिक परद्रव्यनिकी सापेक्षकरि नर नारक पृथ्वीकायादिरूप जीवके विशेष किए । तव मनुष्य जीव है, नारकी जीव है, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवकी पहचानि भई। अथवा अभेदवस्तुविषै भेद उपजाय ज्ञानदर्शनादि गुणपर्यायरूप जीवके विशेष किए, तब जाननेवाला जीव है, देखनेवाला जीव है, इत्यादि प्रकार लिए वाकै जीवको पहिचानि भई। ब-३८३ JadooprofootpatOOKacoopcorp00-3000-00-00100000156000000000000000000000000088/oo0IMere+ రాం క9 -0000 1010 రాం రాం రాం
SR No.600387
Book TitleTarantaran Shravakachar evam Moksh Marg Prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTaranswami, Shitalprasad Bramhachari, Todarmal Pt
PublisherMathuraprasad Bajaj
Publication Year1935
Total Pages988
LanguageSanskrit
ClassificationManuscript
File Size30 MB
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