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तारणतरण
॥१०॥
जिससे वे बड़ी मनोरंजक कथाएं व नाटक व खेल, व गान व उपन्यास बनाते हैं, जिनके पढने, ४ श्रावकाचार सुनने देखनेसे वैरागीका मन भी रागी होजावे सो सब अशुभ प्रमाण या ज्ञान है। विकथाओंको बनाकर, पढकर, सुनकर आनन्द मानते रहना अशुभ भावना है, अशुभ उपयोग है, जो पापका बंध करनेवाला है। जिनको पढकर या सुनकर कामभोगकी इच्छा बढ जावे, पांचों इंद्रियोंकी तृष्णा अधिक होजावे, इस तरहसे उन विकथाओंको मनोरंजक बनाकर नानाप्रकारके रसोंसे भरकर कथन करना विकथाओंमें ममता बढाकर विषय कषायोंमें ममत्व बढानेवाला है। जिस धर्मके भीतर
ऐसे विकथाओंकी प्ररूपणा हो उन कथाओंको कह सुनकर रंजायमानपना किया जाता है वह ४. धर्म संसार राग बढानेके कारण अधर्म है।
श्लोक-स्त्रियः कामरूपेण, कथितं वर्णविशेषितं ।
ते नरा नरयं यांति, धर्मरत्नं विलोपितं ॥ १०॥ अन्वयार्थ-(वर्णविशेषित ) अनेक तरहके वर्णनकी विशेषतासे (कथित) जिनका कथन होसके ऐसी (स्त्रियः) स्त्रियां होती हैं (कामरूपेण ) जिनके निमित्तसे कामभावकी प्राप्ति होजाती है। जो मानव इन स्त्रियोंकी कथाओं में रंजायमान होजाते हैं वे कामभावको बढ़ाकर (धर्मरत्न) धर्मरत्नको (विलोपित) गमा बैठते हैं (ते नरा) वे मानव (नरयं) नरकको (यांति) जाते हैं।
विशेषार्थ-यहा स्त्री कथाका मुख्यतासे वर्णन है। स्त्रियोंके रूपोंका व उनके चरित्रका अनेक तरहसे ऐसा वर्णन किया जासका है जिससे कामभावका उद्वेग बढ़ जाता है। उस उद्वेगसे आकुलित हो अज्ञानी प्राणी व स्त्री व परस्त्रीका विचार छोडकर अनेक तरहसे कामभोगमें फंस जाते हैं। धर्मके सच्चे उपदेशको भूल जाते हैं, धर्म रत्नको खो बैठते हैं और पापों में फंसकर नर्क
चले जाते हैं। रावण सीताजीके रागके कारण राज्यपाट खोकर अपने वंशको नष्ट कराकर-घोर ४ अपमान पाकर अंतमें नर्कका पात्र होजाता है। स्त्रियोंके मोहमें स्त्री कथासे अंधपना आजाता है। जिस धर्मकी पुस्तकों में ऐसी स्त्री राग बढानेवाली मनोहर कथाओंका संग्रह हो व ऐसी लीलाएं बताई हो जिससे महापुरुषोंको भी परस्त्री भोग करनेका दोष लगाया हो सो धर्म कुधर्म ही हैआत्माको संसार सागरमें डवोनेवाला है।