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श्लोक-राज्यं रागं उत्पादी, ममतां गावस्थितं ।
रौद्रध्यानस्य आनन्दं, राज्यं वर्णविशेषितां ॥ १०१ ॥ ॥१.५॥
अन्वयार्थ-( गारवस्थितं ) गौरवमें स्थित (राज्यं ) राज्य (राग) रागको व (ममता) ममत्वको (उत्पादी) पैदा करनेवाला है (राज्यं वर्णविशेषितं ) अनेक तरहके वर्णनकी विशेषतासे राज्यका कथन करना (रौद्र. M ध्यानस्स) रौद्रध्यानका (आनन्दं) आनन्द बढ़ानेवाला है।
विशेषार्थ-यहां राज्य कथा, देश कथा या चोर कथाकी तरफ लक्ष्य दिया है। जिस देशमें गौरवपना हो, ऐश्वर्य हो, धन धान्यसे पूर्णता हो व जो देश सुन्दर स्त्रियों से भरपूर हो, सुन्दर गाने बजाने नाच कूदसे पूर्ण हो, खेल तमाशोंका घर हो, ऐसा राज्य वास्तवमें अज्ञानी प्राणियोंको राग व ममताको बढानेवाला होता है। वे ऐसे देशमें व राज्यमें जाना चाहते हैं, सैर करना चाहते हैं।
धर्म कार्यकी हानि करके भी उनकी बुद्धि देशकी सुन्दरताको देखनेके लिये लालायित होजाती है। ४ऐसे देशकी कथा नानाप्रकार मनोज्ञ वर्णनके साथ करना, सुननेवाले के परिणाममें परिग्रहानन्द
व हिंसानन्द व मृषानन्द आदि रौद्रध्यानको उत्पन्न कर देती है। जिस धर्मकी पुस्तकों में ऐसी राग बढानेवाली देश या राज्योंकी कथा हों जिसके सुननेसे मन राज्य या देश लोभी बन जावे, राज्य सम्पदाको चाहे, निर्वाणके अनुपम राज्यसे विमुख होके संसारके मायाजालको अभिलाषा करने लग जावे ऐसा धर्म जीवोंको बुरा करनेवाला है तथा कुधर्म है। __ श्लोक-हिंसानदी च राज्यं च, अमृतानंद अशाश्वतं ।
कथितं असुहभावेन, संसारे भ्रमन सदा ॥१०२॥ अन्वयार्थ—(असुहभावेन) अशुभ भावोंके द्वारा ( अशाश्वतं ) क्षणभंगुर (राज्य) राज्यकी (कथितं) कथा करना (हिंसानंदी) हिंसानंदी (च) तथा (अनृतानंद) मृषानंदी रौद्रध्यान है (च) और (सदा) सहा
ही ( संसारे) संसारमें (भ्रमन) भ्रमण करानेवाला है। VEER विशेषार्थ-वास्तव में राज्य सम्पदा सब नाशवंत है, आज किसीके पास हैकल नहीं है, इसका
स्वामित्व कुछ कालके लिये ही होसक्ता है। कोई मनुष्य सदा जीवित रहकर राज्यका भोग नहीं
॥१०५॥